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________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३३५ हैं। इस उदाहरण में भाष्यकार ने सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की आह क्रिया का प्रयोग किया है। इस प्रकार तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में एक ओर भाष्यकार के साथ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग हुआ है, तो दूसरी ओर सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया व्यवहत हुई है। अतः जहाँ उत्तमपुरुष की क्रिया का प्रयोग दोनों को अभिन्न सिद्ध करता है, वहाँ अन्यपुरुष की क्रिया उन्हें भिन्न साबित करती है। इस विरोध के परिणामस्वरूप उत्तमपुरुष की क्रिया दोनों को अभिन्न सिद्ध करने में असमर्थ रहती है, इससे सिद्ध होता है कि वह हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। ४.३. सूत्र और भाष्य में विरोध एवं विसंगतियाँ श्वेताम्बरपक्ष पं० सुखलाल जी संघवी ने भाष्य को स्वोपज्ञ सिद्ध करने के लिए तीसरा हेतु यह बतलाया है कि भाष्य में किसी भी स्थल पर "सूत्र का अर्थ करने में शब्दों की खींचातानी नहीं हुई, कहीं सूत्र का अर्थ करने में सन्देह या विकल्प नहीं किया गया, न सूत्र की किसी दूसरी व्याख्या को मन में रखकर सूत्र का अर्थ किया गया और न कहीं सूत्र के पाठभेद का ही अवलम्बन लिया गया है।" (त.सू./ वि.स./ प्रस्ता. / पृ. १६)। दिगम्बरपक्ष इस हेतु के विषय में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का कहना है कि "प्रथम तो सूत्रों का अर्थ करने में शब्दों की खींचातानी न होना, सन्देह या विकल्प न होना आदि बातें किसी व्याख्या के सूत्रकारकृत होने में नियामक नहीं हो सकती, क्योंकि पातञ्जलसूत्रों पर विरचित व्यास-भाष्य में भी उक्त बातें पायी जाती हैं, किन्तु वह सूत्रकारकृत नहीं है। दूसरे, तत्त्वार्थसूत्र का उक्त भाष्य उक्त बातों से एकदम अछूता भी नहीं है।" (जै.सा. इ./ भाग २ / पृ. २४१)। मेरा निवेदन है कि भाष्यकार ने भाष्य में कोई छोटी-मोटी खींचातानी नहीं की है, कोई मामूली सन्देह या विकल्प पैदा नहीं किये हैं, उन्होंने इतनी गम्भीर सैद्धान्तिक विपरीतताएँ और प्ररूपणशैली में इतनी ज्यादा विसंगतियाँ उत्पन्न की हैं कि उनके द्वारा वे अपने को सूत्रकार से बिलकुल विरुद्ध दिशा में खींचकर ले गये हैं और यह सिद्ध कर दिया है कि वे सूत्रकार से सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। इन सैद्धान्तिक विपरीतताओं और प्ररूपण-शैलीगत विसंगतियों का प्रदर्शन पूर्व (शीर्षक २) में किया Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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