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________________ ३३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ जा चुका है। उनसे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न साबित करने के लिए मान्य संघवी जी द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त हेतु असत्य हैं। एककर्तृत्वविरोधी बाह्य हेतु सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में एककर्तृत्व-विरोधी कुछ बाह्य हेतु भी प्रस्तुत किये हैं। उनमें पहला यह है कि तत्त्वार्थसूत्र के काल में जितने भी सूत्रग्रन्थ रचे गये, उनमें से किसी पर भी उसके रचयिता ने कोई भाष्य या वृत्ति नहीं रची। पातञ्जलसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, वेदान्तसूत्र आदि इसके उदाहरण हैं। (जै.सा.इ./ भा.२ / पृ. २४४)। इससे इस अनुमान को बल मिलता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी अपने ग्रन्थ पर कोई भाष्य नहीं रचा। . दूसरे हेतु पर प्रकाश डालते हुए पण्डित जी कहते हैं-"तत्त्वार्थभाष्य की प्रारंभिक कारिकाओं में एक कारिका इस प्रकार है महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम्॥ २३॥ "इसमें जिनवचनरूपी महोदधि की महत्ता बतलाते हुए उसे दुर्गमग्रन्थभाष्यपार बतलाया है। टीकाकार देवगुप्तसूरि ने इस पद का व्याख्यान इस प्रकार किया है "दुर्गमो ग्रन्थभाष्ययोः पारो निष्ठाऽस्येति दुर्गमग्रन्थभाष्यपारः। तत्रानुपूर्व्या पदवाक्यसन्निवेशो ग्रन्थः। तस्य महत्त्वादध्ययनमात्रेणापि दुर्गमः पारः। तस्यैवार्थविवरणं भाष्यं, तस्यापि नयवादानुगमत्वादलब्धपारः।" (सम्बन्धकारिका /२३/ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र । भाग १/जी. च.साकरचंद जवेरी, मुंबई / पृ. १६)। "अर्थात् उस जिनवचनरूपी महोदधि के ग्रन्थों और उन ग्रन्थों के अर्थ को बतलाने वाले जो उनके भाष्य हैं, उनका पार पाना कठिन है। "यहाँ तत्त्वार्थभाष्यकार ने आगमग्रन्थों के साथ उनके भाष्यों का भी उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थभाष्य की रचना भाष्यों के बाद में ही हुई। भाष्यों का रचनाकाल विक्रम की ७वीं शती है। अतः तत्त्वार्थभाष्य सातवीं शती के पहले की रचना नहीं हो सकता।" (त.सू. / प्रस्ता. / पृ. ३१)। इन दो बहिरंग हेतुओं से भी यह सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के द्वारा उसके भाष्य की रचना नहीं हुई। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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