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________________ अ० २२ / प्र० १ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२५ थी । पउमचरिउ के ये उल्लेख सिद्ध करते हैं कि स्वयम्भू दिगम्बरलिंग से ही मुक्ति मानते हैं, सचेललिंग से नहीं । अतः वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं । ७ दिव्यध्वनि द्वारा चौदह गुणस्थानों का उपदेश पउमचरिउ में बतलाया गया है कि भगवान् ऋषभदेव ने चौदह गुणस्थानों पर आरूढ़ होते हुए मोक्ष प्राप्त किया था? तथा अपनी दिव्यध्वनि से भी गुणस्थानों का उपदेश दिया था । १३ यह कथन श्वेताम्बर और यापनीय मतों के विरुद्ध है, क्योंकि श्वेताम्बर - आगमों में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है । उत्तरवर्ती साहित्य में उल्लेख हुआ है, किन्तु उसे श्वेताम्बर विद्वानों ने प्रक्षिप्त माना है । यापनीय - सम्प्रदाय श्वेताम्बर - आगमों को ही प्रमाण मानता था, अतः उक्त सम्प्रदाय में भी गुणस्थान - अवधारणा का अभाव था। इसके अतिरिक्त गुणस्थान - सिद्धान्त इन सम्प्रदायों की सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है, इस कारण भी इन सम्प्रदायों में गुणस्थानसिद्धान्त का मूलतः अभाव है। अतः पउमचरिउ में भगवान् ऋषभदेव के गुणस्थानों पर आरूढ़ होने एवं दिव्यध्वनि द्वारा उनका उपदेश दिये जाने का कथन ग्रन्थ के यापनीयपरम्परा का न होकर दिगम्बर- परम्परा के होने का अन्यतम प्रमाण है। पउमचरिउ में भगवान् ऋषभदेव को राजा श्रेयांस द्वारा जिस विधि से आहार दिये जाने एवं पञ्चाश्चर्य होने का वर्णन है, वह दिगम्बरपरम्परा का अनुसरण करता है । १४ मुनि गुप्त और सुगुप्त के लिए राम एवं सीता द्वारा आहारदान किये जाने की विधि भी वैसी ही वर्णित की गयी है । १५ यह भी ग्रन्थ के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण है। पउमचरिउ में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से स्पष्ट है कि यह यापनीयग्रन्थ नहीं है, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ है। अतः इसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये गये हैं, वे या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं । विचार करने से वे सभी हेत्वाभास सिद्ध होते हैं। १२. चउदसविह- गुणथाणु चडन्तहों ॥ १ / ३ / २ / ८ ॥ पउमचरिउ | १३. तव - सीलोववास - गुणठाणइँ ॥ १ / ३ / ११ / ३ ॥ पउमचरिउ । १४. पउमचरिउ १ / २ / १६ / ११, १७ /१-१०। १५. पउमचरिउ २ / ३४ / १२ / १-११, १३/१-९ । Jain Education International ❖❖❖ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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