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अ०१९ / प्र०१
रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३१ और चार शिक्षाव्रत, यह गृहस्थों का धर्म है। जो गृहस्थ अन्तिम समय में सर्व आरंभ का परित्याग कर शरीर में भी निःस्पृह हो जाते हैं तथा समताभाव से मरण करते हैं, वे उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।" (४५-४७)
"पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ, यह व्योमवाससों (आकाशाम्बरों - दिगम्बरों) का अर्थात् यतियों या मुनियों का धर्म है। जो इस दिगम्बरों अर्थात् मुनियों के धर्म को धारणकर शुभध्यान में लीन होते हैं, वे दुर्गन्धमय शरीर को छोड़कर स्वर्ग या मोक्ष को प्राप्त होते हैं।" (४८-४९)।
"और जो जीव परमब्रह्मचारी-जन्मजातरूपधारियों (दिगम्बरमुनियों) की भावपूर्वक स्तुति करते हैं, वे धर्म को प्राप्त हो सकते हैं। वे उस धर्म के प्रभाव से कुगतियों में नहीं जाते, अपितु उस रत्नत्रयधर्म को प्राप्त कर लेते हैं, जो उन्हें पाप से मुक्त कर देता है। इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् ऋषभदेव के द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर देव और मनुष्य परम हर्ष को प्राप्त हुए।" (५०-५२)।।
यहाँ रविषेण ने नग्न अर्थ के वाचक व्योमवासस् और जातस्वरूप शब्दों को मुनि शब्द के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे वस्त्रधारी को मुनि नहीं मानते। तथा उन्होंने यह वर्णन किया है कि तीर्थंकर वृषभदेव ने केवल व्योमवसन-लिंगरूप अर्थात् नाग्न्यलिंगरूप जिनकल्प को ही मुनियों का धर्म बतलाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे यापनीयमत में मान्य मुनियों के सचेल स्थविरकल्प को तीर्थंकरोपदिष्ट नहीं मानते। इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि वे यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमतावलम्बी हैं।
रविषेण ने निम्नलिखित श्लोक में भी दिगम्बरलिंग को ही मुनियों का एकमात्र लिंग बतलाया है
सागारं निरगारं च द्विधा चारित्रमुत्तमम्। सावलम्बं गृहस्थानां निरपेक्षं खवाससाम्॥ ३३/१२१॥
पद्मपुराण / भाग २। अनुवाद-"उत्तम चारित्र दो प्रकार का है : सागार और अनगार। जिसमें बाह्य पदार्थों का अवलम्बन होता है, वह गृहस्थों का चारित्र (सागारचारित्र) है और जो बाह्य पदार्थों के अवलम्बन से रहित होता है, वह आकाशरूपी वस्त्र धारण करनेवालों का (ख-वाससाम्) अर्थात् दिगम्बर मुनियों का चारित्र (अनगारचारित्र) है।"
इस श्लोक में दिगम्बरों को ही अनगार या मुनि कहा गया है, सवस्त्र साधु को नहीं। दिगम्बर साधु के अतिरिक्त शेष सभी वस्त्रादि-बाह्यपदार्थों का अवलम्बन
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