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________________ अ०१९ / प्र०१ ६३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ पद्मपुराण में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त वैकल्पिक सवस्त्र-मुनिलिंग का निषेध १.१. मुनियों का एक ही लिंग : दिगम्बरलिंग आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में वर्णन किया है कि केवलज्ञानप्राप्ति के अनन्तर भगवान् ऋषभदेव समवसरण में गणधर की प्रार्थना पर धर्म का उपदेश देते हैं। उसमें वे धर्म के दो भेद बतलाते हैं : श्रावकधर्म और यतिधर्म, तथा यतियों के धर्म को व्योमवाससों (आकाश-रूपी-वस्त्रधारियों) का धर्म कहते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि रविषेण की मान्यतानुसार भगवान् ऋषभदेव ने दिगम्बरलिंगधारी को ही यति या मुनि कहा है, सवस्त्रलिंगधारी को नहीं। देखिए सागाराणां यतीनां च धर्मोऽसौ द्विविधः स्मृतः। तृतीयं ये तु मन्यन्ते दग्धास्ते मोहवह्निना॥ ४/४५ ॥ अणुव्रतानि पञ्च स्युस्त्रिप्रकारं गुणवतम्। शिक्षाव्रतानि चत्वारि धर्मोऽयं गृहमेधिनाम्॥ ४/४६॥ सर्वारम्भपरित्यागं कृत्वा देहेऽपि निःस्पृहाः। कालधर्मेण संयुक्ता गतिं ते यान्ति शोभनाम्॥ ४/४७॥ महाव्रतानि पञ्चस्युस्तथा समितयो मताः ।। गुप्तयस्तिस्र उद्दिष्टा धर्मोऽयं व्योमवाससाम्॥ ४/४८॥ धर्मेणानेन संयुक्ताः शुभध्यानपरायणाः। यान्ति नाकं च मोक्षं च हित्वा पूतिकलेवरम् ॥ ४/४९॥ येऽपि जातस्वरूपाणां परमब्रह्मचारिणाम्। स्तुतिं कुर्वन्ति भावेन तेऽपि धर्ममवाप्नुयुः॥ ४/५०॥ तेन धर्मप्रभावेण कुगतिं न व्रजन्ति ते। लभन्ते बोधिलाभं च मुच्यन्ते येन किल्विषात्॥ ४/५१ ।। इत्यादि देवदेवेन भाषितं धर्ममुत्तमम्। श्रुत्वा देवा मनुष्याश्च परमामोदमागताः॥ ४/५२॥ पद्मपुराण/ भाग १। अनुवाद-"यह धर्म दो प्रकार का है : सागारधर्म और यतिधर्म। जो इनके अतिरिक्त तीसरा धर्म मानते हैं, वे मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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