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________________ एकोनविंश अध्याय रविषेणकृत पद्मपुराण प्रथम प्रकरण पद्मपुराण के दिगम्बर ग्रन्थ होने के प्रमाण पं० नाथूराम जी प्रेमी ने आचार्य रविषेण को दिगम्बरपरम्परा के सेनसंघ से सम्बद्ध माना है। वे लिखते हैं- “रविषेण ने न तो अपने किसी संघ या गण-गच्छ का कोई उल्लेख किया है और न स्थानादि की ही चर्चा । परन्तु सेनान्त नाम से अनुमान होता है कि शायद वे सेनसंघ के हों और इनकी गुरुपरम्परा के पूरे नाम इन्द्रसेन, दिवाकरसेन, अर्हत्सेन और लक्ष्मणसेन हों।" (जै. सा. इ. / द्वि.सं./ पृ. ८८) । 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी ने भी पहले एक लेख में रविषेणकृत पद्मपुराण (पद्मचरित) को दिगम्बरग्रन्थ ही माना था । उन्होंने उसमें लिखा है - "दिगम्बरपरम्परा में पद्मपुराण के रचयिता रविषेण (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंशपउमचरिउ के रचयिता यापनीय स्वयम्भू ने विमलसूरि का ही पूरी तरह अनुकरण किया है। पद्मपुराण तो 'पउमचरिय' का ही विकसित संस्कृत-रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे दिगम्बर-परम्परा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।" (डॉ. सा. म. जै. अभि.ग्र. / पृ. ६४८)। Jain Education International किन्तु श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने इस दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ बतलाया है, अतः उसे देखकर डॉ० सागरमल जी ने भी श्रीमती पटोरिया की हाँ में हाँ मिला दी और उसे यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया। इसके पक्ष में उक्त विदुषी ने जो हेतु बतलाये हैं, उन्हीं को उक्त विद्वान् ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत कर दिया है। (जै.ध.या.स./ पृ. १७७-१८०)। मान्या विदुषी द्वारा प्रस्तुत हेतुओं का उल्लेख और मीमांसा बाद में की जायेगी। पहले पद्मपुराण में प्रतिपादित उन यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का निरूपण किया जा रहा है, जिनसे सिद्ध होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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