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६३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१९/प्र०१ करनेवालों को गृहस्थ संज्ञा दी गई है। इससे स्पष्ट है कि पद्मपुराण दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। आचार्य रविषेण आगे कहते हैं
सुदुष्करं विगेहानां चारित्रमवधार्य सः। पुनः पुनर्मतिं चक्रेऽणुव्रतेष्वेव पार्थिवः॥ ३३/१२३॥
पद्मपुराण / भाग २। अनुवाद-"राजा वज्रकर्ण ने मुनियों के चारित्र को अत्यन्त कठिन समझकर अणुव्रत धारण करने का ही बार-बार विचार किया।"
इससे भी स्पष्ट होता है कि राजा के सामने दिगम्बरमुनि-मार्ग के अलावा अणुव्रतधारी श्रावक का ही दूसरा मार्ग अवशिष्ट था, यापनीयपरम्परा के समान सवस्त्र स्थविरकल्पी मुनियों के सरल अपवादमार्ग का विकल्प नहीं था। यह भी ग्रन्थ के यापनीय न होकर दिगम्बरीय होने का प्रमाण है। १.२. दिगम्बर मुनि की ही मुनि, श्रमण, साधु आदि संज्ञाएँ
निम्नलिखित पद्यों में आचार्य रविषेण ने निरम्बर (दिगम्बर) मुनि को हो यमी, वीतराग, योगी, ध्यानी, साधु, आचार्य, अनगार, भिक्षु और श्रमण नामों से अभिहित किया है
यमिनो वीतरागाश्च निर्मुक्ताङ्गा निरम्बराः। योगिनो ध्यानिनो वन्द्या ज्ञानिनो निःस्पृहा बुधाः॥ १०९/८८॥ निर्वाणं साधयन्तीति साधवः परिकीर्तिताः। आचार्या यत्सदाचारं चरन्त्याचारयन्ति च ॥ १०९।८९ ॥ अनगारगुणोपेता भिक्षवः शुद्धभिक्षया। श्रमणाः सितकर्माणः परमश्रमवर्तिनः॥ १०९/९० ॥
पद्मपुराण / भाग ३।। इससे सूचित होता है कि रविषेण सवस्त्र साधु को साधु संज्ञा का पात्र नहीं मानते। यह उनके यापनीय न होने का सबूत है। १.३. 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बर का वाचक
रविषेण ने दिगम्बर को ही निर्ग्रन्थ कहा है। राम सुव्रतमुनि के पास जाकर निर्ग्रन्थदीक्षा की याचना करते हैं। जब वे अनुमति दे देते हैं तब राम आहार, मुकुट, कुण्डल, वस्त्र आदि का परित्याग कर पर्यङ्कासन में विराजमान हो जाते हैं और शिर के बालों को अंगुलियों से उखाड़कर अलग कर देते हैं
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