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________________ ४९१ [बीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ५.७. निश्चयद्वात्रिंशिका में ज्ञानदर्शनचारित्र व्यस्तरूप से मोक्षमार्ग, सन्मतिसूत्र में समस्तरूप से . ४८९ ५.८. निश्चयद्वात्रिंशिका में धर्म-अधर्म-आकाश द्रव्य अमान्य, सन्मतिसूत्र में मान्य ४९० ५.९. निश्चयद्वात्रिंशिकाकार सिद्धसेन के लिए 'द्वेष्य श्वेतपट' विशेषण का प्रयोग ५.१०. न्यायावतार सन्मतिसूत्र से एक शताब्दी पश्चात् की रचना ४९२ ६. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन नियुक्तिकार भद्रबाहु से उत्तरवर्ती ७. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का समय छठी और ७वीं शती ई० का मध्य७.१. पूज्यपाद-उल्लिखित सिद्धसेन सन्मतिसूत्रकार से भिन्न एवं पूर्ववर्ती ७.२. पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख ७.३. न्यायावतार में समन्तभद्र का अनुकरण ७.४. प्रथम द्वात्रिंशिका में समन्तभद्र का प्रचुर अनुकरण ७.५. आद्य जैन तार्किक सिद्धसेन नहीं, अपितु समन्तभद्र ७.६. कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन पूज्यपाद से पूर्ववर्ती ५१४ ८. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य ८.१. दिगम्बर-सेनगण के आचार्य ८.२. सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि की 'पञ्चवस्तु' में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के लिए 'दिवाकर' उपनाम का प्रयोग ८.३. नामसाम्य के कारण 'दिवाकर' उपनाम अन्य सिद्धसेनों के भी साथ जुड़ गया ५२१ ८.४. रविषेण के पद्मचरित में 'दिवाकरयति' का उल्लेख ८.५. दूसरी, पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में युगपद्वाद एवं स्त्रीवेदी पुरुष-मुक्ति मान्य ८.६. सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बरमान्य क्रमवाद का खण्डन ५२७ ८.७. श्वेताम्बराचार्यों द्वारा सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की निन्दा ५२८ ८.८. दिगम्बरसाहित्य में सन्मतिसूत्रकार का गौरवपूर्वक स्मरण ५२८ ५१३ ५१५ ५१६ ५१८ ५२२ ५२३ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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