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________________ [ उन्नीस ] ४५६ ४५६ ४५७ ४५७ ४. शिवार्य दिगम्बर थे ४५८ ५. नाम के साथ 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं ४५८ ६. स्त्रीमुक्त्यादि-निषेध का अनुल्लेख यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं ७. न शिवार्य यापनीय थे, न यतिवृषभ ८. 'गणी' शब्द यतिवृषभ का सूचक नहीं ९. O अन्तस्तत्त्व द्वितीय प्रकरण - यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता १. कसायपाहुडचूर्णि एवं यतिवृषभ यापनीय नहीं २. दिगम्बरों में कसायपाहुडचूर्णि का लेखन ३. उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा कपोलकल्पित ५. आगमविच्छेदक्रम न प्रक्षिप्त, न यापनीयकथित उपसंहार — ति० प० के दिगम्बराचार्यकृत होने के प्रमाण सूत्ररूप में प्रथम प्रकरण – सन्मतिसूत्रकार के दिगम्बर होने के प्रमाण १. सन्मतिसूत्र जैनदर्शन - प्रभावक ग्रन्थ २. सिद्धसेन नाम के अनेक ग्रन्थकार ३. कल्याणमन्दिरस्तोत्र - वर्णित पार्श्वनाथ - उपसर्ग श्वेताम्बरमत-विरुद्ध न्यायावतार एवं ३२ द्वात्रिंशिकाओं का परिचय ४. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन केवल 'सन्मतिसूत्र' के कर्त्ता O समान प्रतिभा का हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास ५. १. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन अभेदवाद ( एकोपयोगवाद) पुरस्कर्त्ता ५.२. प्रथम-द्वितीय-पंचम द्वात्रिंशिकाएँ युगपद्वादप्रतिपाद ५.३. निश्चयद्वात्रिंशिका एकोपयोगवाद-विरोधी, युगपद्वादी ५.४. निश्चयद्वात्रिंशिका मति - श्रुतभेद - अवधि - मन:पर्ययभेदविरोधी Jain Education International अष्टादश अध्याय सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य ५.५. 'सन्मतिसूत्र' मतिज्ञान - श्रुतज्ञान - भेदसमर्थक ५.६. न्यायावतार मतिज्ञान - श्रुतज्ञानादि - भेदसमर्थक For Personal & Private Use Only ४५९ ४५९ ४६० ४६१ ४६४ ४६९ ४६९ ४७० ४७२ ४७३ ४७९ ४८१ ४८२ ४८४ ४८६ ४८६ ४८७ ४८७ www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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