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________________ ३४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ क - - 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' (२/१७) के भाष्य में उपकरण के दो भेद किये गये हैं : बाह्य और अभ्यन्तर । ११९ ये श्वेताम्बर - आगमों में मान्य नहीं हैं । तत्त्वार्थभाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेनगणी कहते हैं कि " 'आगम में ये दो भेद नहीं मिलते। यह आचार्य का ही कोई सम्प्रदाय है । १२० उक्त भेद दिगम्बरमत में मान्य हैं, जिनका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि में किया गया है । १२१ इससे स्पष्ट होता है कि वे सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये गये हैं । ख - " नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया: " (३/३) इस सूत्र का भाष्य करते हुए रत्नप्रभाभूमि के नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल बतलाई गई है । १२२ सिद्धसेनगणी कहते हैं कि " भाष्यकार यह कथन अतिदेश से किया है। मैंने तो आगम में कहीं भी प्रतरादिभेद से नारकियों की अवगाहना नहीं देखी।" १२३ यह अवगाहना दिगम्बरागम में मान्य है । इसका भी वर्णन सर्वार्थसिद्धि में किया गया है । १२४ इससे भी सिद्ध है कि यह अवगाहना सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण की गई है। ग - " आर्याम्लेच्छाश्च" (३/१५) के भाष्य में अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ बतलाई है । यह श्वेताम्बर - आगम के विरुद्ध है । उसमें अन्तरद्वीप ५६ ही बतलाये गये हैं । अतः टीकाकार सिद्धसेनगणी रोष प्रकट करते हुए कहते हैं- "इस अन्तरद्वीपकभाष्य को किन्हीं दुर्विदग्धों ने नष्ट कर दिया है, जिससे भाष्यों में ९६ अन्तरद्वीप मिलते हैं । यह अनार्ष है, क्योंकि 'जीवाभिगम' आदि में ५६ अन्तरद्वीप बतलाये गये हैं । वाचकमुख्य सूत्र का उल्लंघन करके कथन नहीं कर सकते, क्योंकि यह असंभव है।"१२५ अर्थात् सिद्धसेन के अनुसार किसी अन्य ने ५६ की जगह ९६ संख्या कर दी है। ११९. "उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य २ / १७ । १२०. " आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २/१७ / पृ. १६६ । १२१. “ येन निर्वृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । " सर्वार्थसिद्धि २ / १७ । १२२. “सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडङ्गुलमिति शरीरोच्छ्रायो नारकाणां रत्नप्रभायाम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / ३ / ३ / पृ. १४५ । १२३. “उक्तमिदमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतन्न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणां शरीरावगाहनमिति ।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३ / ३ / पृ. २४० । १२४. “तेषामुत्सेधः प्रथमायां सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडङ्गुलयः ।" सर्वार्थसिद्धि ३/३। १२५. “एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपिका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्षं चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्। नापि वाचकमुख्याः सूत्रोल्लङ्घनेनाभिदधत्यसम्भाव्यमानत्वात् । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ३/१५/पृ. २६७ / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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