SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३४३ बाद के प्रतिलिपिकारों ने भाष्य में ९६ के स्थान में ५६ कर दिया है। इस विषय में पं० नाथूराम जी प्रेमी टिप्पणी करते हैं - " सर्वार्थसिद्धि और तिलोयपण्णत्त आदि दिगम्बरग्रन्थों में भी ९६ ही अन्तरद्वीप बतलाये हैं । भाष्य में भी ९६ का ही पाठ रहा होगा। परन्तु आश्चर्य है कि मुद्रित भाष्यपाठों में ५६ ही अन्तरद्वीप मुद्रित हैं और उक्त भाष्यांश के नीचे ही ९६ अन्तरद्वीपों की सूचना देने वाली सिद्धसेन की तथा हरिभद्र की टीका मौजूद है । प्रतिलिपिकारों अथवा मुद्रित करानेवालों का यह अपराध अक्षम्य है।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं./पा.टि./पृ.५३७) । यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि जब श्वेताम्बर - आगमों में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ ही है, तब भाष्यकार ने ९६ की संख्या कहाँ से ग्रहण की ? निश्चित ही सर्वार्थसिद्धि से ग्रहण की है। घ- भाष्य में आठ ही लौकान्तिक देव वर्णित हैं- " एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा---।'' (४/२६) किन्तु श्वेताम्बर - आगम भगवतीसूत्र, ज्ञातृधर्मकथा, स्थानांग आदि में नौ बतलाये गये हैं। (प्रेमी / जै. सा. इ / द्वि.सं./ पृ. ५३८ ) । सर्वार्थसिद्धि (४/२५) में भी आठ ही भेदों का कथन किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया है। ङ - " एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः " (१/३१) के भाष्य में प्रश्न उठाया गया है कि केवलज्ञान के साथ मतिज्ञानादि रहते हैं या नहीं? इसके उत्तर में भाष्यकार कहते हैं कि कुछ आचार्यों के अनुसार मतिज्ञानादि का अभाव नहीं होता, किन्तु केवलज्ञान से अभिभूत हो जाने से वे अकिंचित्कर हो जाते । तथा कुछ आचार्यों का मत है कि मतिज्ञानादि केवलज्ञान के साथ नहीं रह सकते, क्योंकि मतिज्ञानादिउपयोग क्रमशः होते हैं, जबकि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग युगपत् होते हैं। इसके अतिरिक्त मतिज्ञानादि चार ज्ञान क्षयोपशमजन्य हैं, किन्तु केवलज्ञान क्षयजन्य । इसलिए केवली के शेष ज्ञान नहीं होते । १२ यहाँ भाष्यकार ने अन्य कुछ आचार्यों के मत के अन्तर्गत केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग के युगपत् होने का जो मत बतलाया है, वह दिगम्बरमत है। वह १२६.‘“ अत्राह—अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैर्मतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति नेत्युच्यते। केचिदाचार्या व्याचक्षते, नाभावः किन्तु तदभिभूतत्वादकिञ्चित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् । --- केचिदप्याहुः --- किं चान्यत् - मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत् । सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति । किं चान्यत् — क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि क्षयादेव केवलम्। तस्मान्न केवलिनः शेषाणि ज्ञानानि सन्तीति । " तत्त्वार्थधिगमभाष्य १ / ३१ / पृ. ५६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy