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________________ ३४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ श्वेताम्बरमत के विरुद्ध है। श्वेताम्बर-आगमों में केवली के भी ज्ञानदर्शनोपयोग का क्रमशः होना माना गया है। इसीलिए सिद्धसेनगणी सन्मतिसूत्र के कर्ता के उपयोगअभेदवाद पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं-"अपने को पण्डित माननेवाले कुछ लोग सूत्रों का अर्थ कुछ का कुछ करते हैं। तर्कबल का आश्रय लेकर कहते हैं कि केवली का उपयोग वारंवार (क्रमशः) नहीं होता। किन्तु यह प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि आम्नाय में अनेक सूत्र प्रतिपादित करते हैं कि केवली का उपयोग वारंवार (क्रमशः) होता है।"१२७ उपर्युक्त दिगम्बरमत का प्रतिपादन सर्वार्थसिद्धि में किया गया है।१२८ अब यह तो युक्तिसंगत सिद्ध हो नहीं सकता कि इस दिगम्बरसिद्धान्त को स्वयं दिगम्बराचार्य पूज्यपाद स्वामी ने श्वेताम्बराचार्यकृत भाष्य से ग्रहण किया होगा। युक्तिसंगत यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर-भाष्यकार ने इसे दिगम्बरग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि से उद्धृत किया है। चूँकि उपर्युक्त पाँचों सिद्धान्त दिगम्बरमत के सिद्धान्त हैं, किन्तु दिगम्बरग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि और श्वेताम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दोनों में मिलते हैं, इससे यह स्वतः सिद्ध है कि वे सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में ग्रहण किये गये हैं। अतः सर्वार्थसिद्धि की रचना भाष्य से पूर्व हुई है। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का भाष्य में उल्लेख इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का भी उल्लेख भाष्य में किया गया है। "मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" यह सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ है (१/२६)। भाष्य में "मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" (१/२७) पाठ है। अर्थात् भाष्य में द्रव्य शब्द के साथ सर्व विशेषण का प्रयोग किया गया है। किन्तु "श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम्" (१/२०) के भाष्य में भाष्यकार "द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" यह सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही लिखते हैं, जैसे "अत्राह-मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति 'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' इति।" सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि ने अपनी टीकाओं में भी भाष्य के इस अंश को इसी रूप में स्वीकार किया है।१२९ इससे यह विश्वास करने १२७. "यद्यपि केचित्पण्डितम्मन्याः सूत्राण्यन्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धबुद्धयो वारंवारेणो पयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपाद यन्ति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/३१ / पृ. १११ । १२८. "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति। तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते, निरावरणेषु युगपत्।" सर्वार्थ सिद्धि/२/९/ पृ. ११८।। १२९. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री : सर्वार्थसिद्धि-प्रस्तावना/ पृ. ४५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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