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________________ अ० १६ / प्र० २ तत्त्वार्थसूत्र / ३४५ के लिए महत्त्वपूर्ण आधार मिल जाता है कि भाष्य लिखते समय भाष्यकार के समक्ष सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है। डॉ० सागरमल जी को यह स्वीकार्य नहीं है। उनका कथन है कि भाष्यकार ने स्वरचित सूत्र का ही सर्व विशेषणरहित अंश उद्धृत किया है । सर्व विशेषण को उन्होंने वहाँ क्यों छोड़ा, इसके समाधानार्थ डॉक्टर सा० ने हेतुओं के कई विकल्प प्रस्तुत किये हैं, जिनमें से प्रामाणिक हेतु कौनसा है, यह बतलाने में वे स्वयं असमर्थ रहे हैं। वे विकल्प इस प्रकार हैं १. आवश्यक नहीं है कि ग्रन्थकार पूरे (विशेषणादि - सहित ही ) सूत्र को उद्धृत करे । २. 'द्रव्येषु' पाठ स्वतः बहुवचनात्मक है, अतः सर्व विशेषण को वहाँ उद्धृत करना आवश्यक भी नहीं था। ३. हो सकता है भाष्यकार की विस्मृति से छूट गया हो । ४. हो सकता है लिपिकार की भूल से छूट गया हो । ५. हो सकता है कि भाष्यकार ने सर्व विशेषणरहित पाठ ही रखा हो और बाद में किसी ने सर्व विशेषण जोड़ दिया हो। (जै. ध. या.स./ पृ. २८०-८१)। इनमें अन्तिम विकल्प यथार्थ नहीं है, क्योंकि भाष्यमान्य सूत्र में सर्व विशेषण का प्रयोग भाष्यकार ने ही किया है, इसकी पुष्टि उक्त सूत्र के भाष्य से होती है। भाष्य में भी उन्होंने सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ही लिखा है और सर्वाणि द्रव्याणि इस प्रकार समासविग्रह भी किया है। देखिए - " मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्विषयनिबन्धो भवति सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु। ताभ्यां हि सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायैः।" (१/२७)। दूसरा विकल्प युक्तिसंगत प्रतीत होता है। यह बिलकुल सत्य है कि द्रव्येषु पाठ स्वतः बहुवचानत्मक है, अतः सर्व विशेषण को वहाँ उद्धृत करना आवश्यक नहीं था। इससे यह अर्थ बिना कहे ही ध्वनित होता है कि उक्त कारण से सूत्र में भी सर्व विशेषण अनावश्यक था, क्योंकि कम से कम शब्दों का प्रयोग करते हुए अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन सूत्ररचना का प्रयोजन होता है । सर्वार्थसिद्धि में उक्त सूत्र का पाठ 'सर्व' विशेषणरहित ही है। इससे सिद्ध है कि वही पाठ सूत्रनियम के अनुरूप होने से निर्दोष है। अब प्रश्न उठता है कि जब भाष्यकार यह जानते थे कि 'सर्व' विशेषणरहित पाठ ही निर्दोष है, तब उन्होंने उसे सूत्र में क्यों जोड़ा? इसका समाधान यह है कि 'द्रव्येषु' पद में प्रयुक्त बहुवचनात्मक विभक्ति से सर्वद्रव्य रूप अर्थ उतनी सरलता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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