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________________ ३४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ और शीघ्रता से हृदयंगम नहीं हो पाता, जितनी सरलता और शीघ्रता से सर्व विशेषण जोड़ देने से हो जाता है । द्रव्येषु पद से कोई सर्वद्रव्य अर्थ ग्रहण न कर बहुद्रव्य अर्थ भी ग्रहण कर सकता है। इसीलिए पूज्यपाद स्वामी को टीका में यह स्पष्ट करना पड़ा है कि द्रव्येषु बहुवचन का निर्देश जीव, धर्म, अधर्म, काल, आकाश और पुद्गल इन सभी द्रव्यों की समष्टि का बोध कराने के लिए किया गया है - " द्रव्येषु' इति बहुवचननिर्देशः सर्वेषां जीवधर्माधर्मकालाकाशपुद्गलानां सङ्ग्रहार्थः ।" (स.सि./ १ / २६) । सर्व विशेषण जोड़ देने से इस स्पष्टीकरण के बिना भी सर्वसाधारण को सर्वद्रव्यरूप अर्थ का बोध हो जाता है। इस विशेषता के कारण उक्त भाष्यमान्य सूत्रपाठ में सर्व विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे 'सर्वद्रव्येषु असर्वपर्यायेषु' ऐसा शब्द - वैपरीत्य निष्पन्न हो जाने से 'सर्व द्रव्यों में, किन्तु सर्व पर्यायों में नहीं' ऐसा अर्थबोध भी सुगम हो जाता है। तथा "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" (१ / ३०) इस सूत्र के साथ भी सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ऐसा शब्दवैपरीत्य घटित हो जाता है। इसी प्रयोजन से भाष्यकार ने द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस सूत्रभाग में सर्व विशेषण जोड़कर उसे सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस रूप में परिवर्तित कर दिया है, जो इस बात का प्रमाण है कि भाष्यमान्य पाठ सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ का विकसितरूप है, अतः वह सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ से अर्वाचीन है। 44 तथा उपर्युक्त प्रयोजन से सर्व विशेषण जोड़ने के बाद भी भाष्यकार ने जो 'श्रुतं मूतिपूर्वं द्व्यनेकद्वादशभेदम्" (१ / २०) इस सूत्र के भाष्य में उसे सर्व विशेषणरहित द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु इस रूप में उद्धृत किया है, उसकी प्रेरणा अवश्य ही उन्हें सर्वार्थसिद्धिटीका से मिली है, क्योंकि उस पाठ को वे उचित और मौलिक मानते थे, अतः अपने भाष्य में भी उसी रूप में उद्धृत करने में उन्हें कोई हानि प्रतीत नहीं हुई । इससे सम्बन्धित सारा सन्देह तब दूर हो जाता है, जब हम देखते हैं कि भाष्यकार ने " द्रव्याणि जीवाश्च" (५ / २) इस सूत्र के भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का वही सूत्र 'उक्तं हि' कहकर आद्योपान्त ज्यों का त्यों उद्धृत किया है, यथा-" उक्तं हि 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु, सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इति ।" (तत्त्वा.भाष्य / ५/२)। अब डॉक्टर साहब के सामने इस तथ्य का अपलाप करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि यहाँ सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ही उद्धृत किया गया है। 'उक्तं हि ' वचन का प्रयोग इसका अकाट्य प्रमाण है। इस प्रकार सिद्ध है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना भाष्य के पूर्व हुई है । अत एव पूर्वोक्त समान वाक्य भी सर्वार्थसिद्धि से ही भाष्य में पहुँचे हैं। इस तरह सर्वार्थसिद्धि के तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से पूर्वरचित सिद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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