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________________ अ०१६/प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३४७ हो जाने पर यह भी सिद्ध हो जाता है कि सूत्रकार सर्वार्थसिद्धिकार से पूर्व हुए हैं, अतः सर्वार्थसिद्धिकार से पूर्व हुए सूत्रकार सर्वार्थसिद्धिकार से पश्चात् हुए भाष्यकार से भिन्न व्यक्ति हैं। सर्वार्थसिद्धि में भाष्य की चर्चा नहीं तीसरी बात यह है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ और भाष्य में जो विसंगतियाँ हैं, न तो उनकी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में की गई है, न ही भाष्य में साधु के वस्त्र-पात्रादिउपभोग का जो समर्थन किया गया है, उसका कोई खंडन सर्वार्थसिद्धि में मिलता है, जबकि तत्त्वार्थराजवार्तिक में ये दोनों बातें उपलब्ध होती हैं। इससे सिद्ध होता है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना के समय तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था। प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुखभाई मालवणिया ने भी यह बात स्वीकार की है। वे लिखते हैं __ "ऐसा प्रतीत होता है कि जैन आगम के भाष्यादि टीका-ग्रन्थ पूज्यपाद के समक्ष नहीं आये, किन्तु अकलंक ने देखे हैं। यही कारण है कि उन्होंने अवर्णवाद की चर्चा में कुछ नई बातें भी जोड़ी हैं। तत्त्वार्थसूत्र (६/१३) की व्याख्या में आचार्य अकलंक कहते हैं-"पिण्डाभ्यवहारजीविनः कम्बलदशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः।" (त. रा. वा./६/ १३ /८/पृ.५२४)। सर्वार्थसिद्धि में तो कवलाहार का निर्देश कर 'आदि' पद दे दिया था, तब यहाँ वस्त्र, पात्र और ज्ञानदर्शन के क्रमिक उपयोग को देकर 'आदि' वचन दिया गया है। स्पष्ट है कि अब वस्त्र और पात्र को लेकर जो विवाद दिगम्बर-श्वेताम्बरों में हुआ है, वह भी निर्देश के योग्य माना गया और नियुक्ति और भाष्य में ज्ञानदर्शन के क्रमिक उपयोग की जो सिद्धसेन के विरोध में चर्चा है, वह भी उल्लेख के योग्य हो गई। अब दोनों सम्प्रदायों का मतभेद उभर आया है, ऐसा कहा जा सकता है। इसी प्रकार श्रुतावर्णवाद के प्रसंग में भी अन्य बातें निर्देशयोग्य हो गईं-"मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदनार्दित-मैथुनोपसेवा रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः।" (त.रा.वा.६/१३/९/पृ.५२४) स्पष्ट है कि ये आक्षेप भाष्य को लेकर ही किये गये हैं अर्थात् श्वेताम्बरों द्वारा मूल की जो व्याख्या की जाने लगी, उससे असम्मति बढ़ती गई।"१३० १३०. दलसुख मालवणिया : लेख–'तत्त्वार्थ की दिगम्बरटीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थता की चर्चा / सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ / पृ. १३७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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