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________________ ३४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०२ माननीय मालवणिया के उपर्युक्त कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि पूज्यपाद स्वामी के समक्ष तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उपस्थित नहीं था, इसलिए सर्वार्थसिद्धि और भाष्य में जो समान वाक्य मिलते हैं, वे सर्वार्थसिद्धि से ही तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में ग्रहण किये गये हैं। अब भाष्यमान्य वे सूत्रपाठ प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्हें अकलंकदेव ने असंगत और अप्रामाणिक ठहराया है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने उनका विवरण सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना (पृ. ४१-४२) में दिया है। उसी के आधार पर उनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। "तत्त्वार्थभाष्यकार ने रत्लशर्करावालुका---पृथुतराः (३/१) इस सूत्र में पुथुतराः पाठ अधिक स्वीकार किया है। श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में इस अर्थ को व्यक्त करने के लिए छत्ताइछत्ता पाठ उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इस पद की व्याख्या करते हुए छत्रातिच्छत्रसंस्थिताः पद द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया है। यह पाठ सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में नहीं है। तत्त्वार्थराज-वार्तिककार भट्ट अकलंक-देव की न केवल इस पर दृष्टि पड़ती है, अपितु वे इसे आड़े हाथों लेते हैं और यह बतलाने का प्रयत्न करते हैं कि सूत्र में पृथुतराः पाठ असंगत है।" . चौथे अध्याय में "शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः" (त.सू./श्वे: ४/९) यह सूत्र आता है। यहाँ द्वयोर्द्वयोः पाठ अधिक है। भट्ट अकलंकदेव की सूक्ष्म दृष्टि इस पाठ पर जाती है और वे बतलाते हैं कि यह आर्षविरुद्ध है। इसी प्रकार "बन्धेऽधिको पारिणामिको च" (त.सू.५/३७) सूत्र तत्त्वार्थभाष्य-मान्य सूत्रपाठ में "बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" (५/३६) इस रूप में उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थराज-वार्तिककार इसे भी आगमविरुद्ध होने के कारण अप्रामाणिक घोषित कर देते हैं।३१ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पाँचवें अध्याय में निम्नलिखित तीन सूत्र अधिक हैं"अनादिरादिमांश्च" (४२), "रूपिष्वादिमान्" (४३), "योगोपयोगी जीवेषु" (४४)। भाष्यकार ने इन सूत्रों में परिणाम के अनादि और सादि ये दो भेद करके धर्म, अधर्म और आकाश के परिणाम को अनादि तथा पुद्गल एवं जीव के परिणाम को सादि कहा है। अकलंक देव इस पर आपत्ति करते हुए कहते हैं- "अनान्ये धर्माधर्म-कालाकाशेषु अनादिः परिणामः, आदिमान् जीवपुद्गलेषु इति वदन्ति, तदयुक्तम्। कुतः? सर्वद्रव्याणां द्वयात्मकत्वे सत्त्वम्। अन्यथा नित्याभावप्रसङ्गात्।" १३१. "बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" इत्यपरे सूत्रं पठन्ति,--- स पाठो नोपपद्यते। कुतः? आर्षविरोधात्।" तत्त्वार्थराजवार्तिक ५/३६/३-४/ पृ. ५००। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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