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________________ त्रयोविंश अध्याय बृहत्कथाकोश 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ की लेखिका श्रीमती डॉ० कुसुम पटेरिया एवं 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी ने हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (९३१ ई.) को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है, क्योंकि उनके अनुसार उसमें स्त्रीमुक्ति और गृहस्थमुक्ति का प्रतिपादन है। लगता है कि इन दोनों ग्रन्थलेखक-लेखिका ने या तो बृहत्कथाकोश को आद्योपान्त पढ़ा नहीं है या ग्रन्थगत उल्लेखों पर जानबूझकर मनमाने अर्थ और मत आरोपित कर उसे बलात् यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ सिद्ध करने का निरर्थक प्रयत्न किया है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति का स्पष्टतः निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के सिद्धान्त हैं। उनका निषेध किये जाने से सिद्ध है कि वह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है और उसके कर्ता हरिषेण दिगम्बराचार्य हैं। इसका स्पष्टीकरण उक्त लेखक-लेखिका द्वारा प्रस्तुत यापनीयपक्षधर हेतुओं का निरसन करते हुए नीचे किया जा रहा है। हेतु को यापनीयपक्ष शीर्षक के नीचे दर्शाया जा रहा है और निरसन दिगम्बरपक्ष शीर्षक के नीचे किया जा रहा है। • बृहत्कथाकोश के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन नहीं, अपितु निषेध यापनीयपक्ष उक्त लेखक-लेखिका ने अपने ग्रन्थों (जै.ध.या.स./ पृ.१६७, या. औ. उ.सा./ पृ. १५१) में बृहत्कथाकोश-गत अशोकरोहिणी कथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित श्लोक को उद्धृत करते हुए कहा है कि इसमें स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया ' एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले। लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम्॥ २३५॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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