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अ०१५/प्र०१
मूलाचार / २१३
अन्यलिंग से मुक्ति का निषेध मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथाएँ अन्यलिंग अर्थात् जैनेतरलिंग से मुक्ति की निषेधक हैं
संखादीदाऊणं मणुय-तिरिक्खाण मिच्छभावेण। उववादो जोदिसिए उक्कस्सं तावसाणं दु॥ ११७४॥ परिवायगाण णियमा उक्कस्सं होदि बंभलोगम्हि। उक्कस्सं सहस्सार त्ति होदि य आजीवगाण तहा॥ ११७५॥ तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं।
णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव॥ ११७६ ॥ अनुवाद-"असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यात्वभाव के कारण ज्योतिष्कदेवों में जन्म लेते हैं और तापसों की उत्पत्ति उत्कृष्ट आयुवाले ज्योतिषी देवों में होती है। परिव्राजकों का जन्म अधिक से अधिक ब्रह्मस्वर्ग में और आजीविकों का अधिक से अधिक सहस्रार स्वर्ग में होता है। इससे ऊपर के स्वर्गों में अन्यलिंगियों की उत्पत्ति नियम से नहीं होती। निर्ग्रन्थ और श्रावकों का जन्म अच्युत स्वर्ग पर्यन्त होता है।"
तापस, परिव्राजक और आजीविक, ये जैनेतरलिंगधारी साधुओं के सम्प्रदाय हैं। आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि इन साधुओं में आजीवक साधु सर्वोत्कृष्ट तपस्वी होता है। लेकिन वह भी अपने तप के बल से अधिक से अधिक सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग में जन्म ले पाता है। उससे ऊपर के स्वर्ग में कोई भी अन्यलिंगधारी साधु नहीं पहुंच पाता। ___ इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि जब मनुष्य अन्यलिंग से बारहवें स्वर्ग से भी ऊपर नहीं जा सकता, तब उससे ऊपर सिद्धशिला पर कैसे पहुँच सकता है? इस प्रकार मूलाचार में अन्यलिंग से मुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। मूलाचार का यह मत यापनीय-मान्यता के अत्यन्त विरुद्ध है, क्योंकि यापनीय अन्यलिंग को भी मुक्ति का साधन मानते थे, यह यापनीयसंघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय में दर्शाया जा चुका है।
मूलाचार (पू.) में अन्यलिंगी की वन्दना का भी निषेध किया गया हैं,१७ जिससे
१७. णो वंदिज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिंद अण्णतित्थं वा।
देसविरद . देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा ॥ ५९४॥ मूलाचार / पूर्वार्ध ।
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