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________________ २१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ किन्तु यापनीय मानते हैं कि स्त्री के नीचे की ओर जाने की सीमा का तो नियम है, जैसे वह छठे नरक से नीचे नहीं जा सकती, किन्तु ऊपर की ओर जाने की सीमा का नियम नहीं है। वह अनुत्तर स्वर्गों को भी पार करती हुई सिद्धशिला तक पहुँच सकती है।६ इसका स्पष्टीकरण डॉ० सागरमल जी ने इस प्रकार किया है "ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो जितना निम्न गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते हैं, किन्तु उच्च गति में समानरूप से जाते हैं। जैसे सम्मूच्छिम जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, चतुष्पद चौथे नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पाँचवे नरक से आगे नहीं जा सकते। इस प्रकार निम्नगति में जाने में इन सब में भिन्नता है, किन्तु उच्च गति में ये सभी सहस्रार स्वर्ग तक बिना किसी भेदभाव के जा सकते हैं। इसलिए यह कहना कि जो जितनी निम्नगति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी ही उच्चगति तक जाने में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है। अधोगति में जाने की अयोग्यता से उच्चगति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती।" (जै. ध. या. स./ पृ. ४०३)। (ज्ञातव्य-यहाँ 'सम्मूछिम' के स्थान में 'असंज्ञी' शब्द होना चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीव ही प्रथम नरक से आगे नहीं जाते। -प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखक)। यह श्वेताम्बर-आगमों को माननेवाले यापनीयों का भी सिद्धान्त है। इस दृष्टान्त के द्वारा यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने यह सिद्ध किया है कि स्त्री में भले ही छठवें नरक से नीचे जाने की क्षमता न हो, पर ऊपर वह लोकाग्र (सिद्धशिला) तक जाने में सक्षम है अर्थात् निर्वाण प्राप्त करने में समर्थ है। मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर का उपर्युक्त कथन इस यापनीय-सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। यापनीय मानते हैं कि स्त्री सोलहवें स्वर्ग से भी ऊपर सिद्धशिला तक जा सकती है। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि वह सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकती। इस तरह यापनीयसिद्धान्तों के सर्वथा विरुद्ध प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ क्या यापनीय आचार्य की कृति हो सकता है? सर्वथा नहीं। १६. सप्तमपृथिवीगमनाद्यभावमव्याप्तमेव मन्यन्ते। निर्वाणाभावेनाऽपश्चिमतनवो न तां यान्ति॥ ५॥ विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम्। गच्छन्ति च तिर्यञ्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः॥ ६॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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