________________
२१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०१ ध्वनित होता है कि वह मुक्ति का अपात्र है। आचार्य वट्टकेर ने जैनशासन के अतिरिक्त अन्य शासनों को कुपथ कहा है।८ मूलाचार (पू.) की निम्नलिखित दो गाथाओं से भी अन्यतीर्थिक की मुक्ति का निषेध फलित होता है
रत्तवडचरग-तावस-परिहत्तादीय अण्णपासंढा।
संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूढो सो॥ २५९॥ अनुवाद-"रक्तवस्त्रधारी (बौद्धभिक्षु), चरक, तापस, परिव्राजक तथा और भी अन्यलिंगी साधु संसारतारक हैं, ऐसा जो मानता है, वह समयमूढ़ (तीर्थमूढ़) है।
जं खलु जिणोवदिटुं तमेव तस्थित्ति भावदो गहणं।
सम्मइंसणभावो तव्विवरीदं च मिच्छत्तं ॥ २६५॥ अनुवाद-"जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है, वही वास्तविक है, ऐसा मानना सम्यग्दर्शन है। इससे विपरीत मिथ्यात्व है।"
इन गाथाओं में स्पष्ट किया गया है कि अन्यलिंग मोक्ष का साधक नहीं है तथा जिनेन्द्रदेव द्वारा बतलाये गये मार्ग से भिन्नमार्ग को मोक्ष का हेतु मानना मिथ्यात्व है। यहाँ स्पष्टतः अन्यलिंग से मोक्ष का निषेध किया गया है। .
गृहिलिंग से मुक्ति का निषेध "णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चुदं जाव" (मूला./ उत्त. /गा.११७६) इस गाथांश में आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि अपने उत्कृष्ट धर्माचरण से भी श्रावक-श्राविकाओं एवं आर्यिकाओं की उत्पत्ति अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं होती। इससे उनकी मुक्ति का निषेध हो जाता है।
मूलाचार (पू.) की एक अन्य गाथा में आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि सावद्ययोग (पापास्रव) से बचने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक का उपदेश दिया है। गृहस्थधर्म जघन्य है, क्योंकि उसमें आरम्भ-परिग्रह की प्रधानता होती है, ऐसा जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्महित करे, अर्थात् उत्तम श्रमणधर्म अंगीकार कर सामायिक में अधिकाधिक संलग्न रहे
सावजजोगपरिवजणटुं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं। गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णिच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं ॥ ५३२॥
१८. लद्धेसु वि एदेसु य बोधी जिणसासणम्हि ण हु सुलहा।
कुपहाणमाकुलत्ता जं बलिया रागदोसा य ॥ ७५९॥ मूलाचार / उत्तरार्ध।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org