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अ०१५/प्र०१
मूलाचार / २१५ श्रावक मुनि के द्वारा अवन्दनीय बतलाया गया है,१९ जिससे विदित होता है कि श्रमण और श्रावक के स्तर में बहुत अन्तर है। श्रावक का धर्म जघन्य है और श्रमण का धर्म उत्तम। इससे सिद्ध है कि मूलाचार में श्रावक या गृहस्थ को मोक्ष का पात्र नहीं माना गया है। किन्तु यापनीयमत गृहिलिंग से भी मुक्ति मानता है। यह इस बात का एक अन्य प्रमाण है कि मूलाचार की मान्यताएँ यापनीय-मान्यताओं के सर्वथा विपरीत हैं। अतः यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है।
अपरिग्रह का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार (पू.) में अपरिग्रह का लक्षण इस प्रकार बतलाया
जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव।
तेसिं सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो॥ ९॥ अनुवाद-"परिग्रह तीन प्रकार का है : जीव से सम्बद्ध (मिथ्यात्व-कषाय), जीव से असम्बद्ध (क्षेत्र, वास्तु , वस्त्र, धन, धान्यादि), तथा जीवोद्भूत (जीवों से उत्पन्न मोती, शंख, शुक्ति, कम्बल आदि)। इन तीनों का जिस सीमा तक त्याग किया जा सकता है, उस सीमा तक त्याग करना और जितने का त्याग नहीं किया जा सकता है उतने (शरीर और संयम के उपकरणों) में ममत्व न करना अपरिग्रह महाव्रत कहलाता
अपरिग्रह के इस लक्षण में पूर्ण नग्नत्व गर्भित है, क्योंकि नग्न रहने की सीमा तक बाह्य परिग्रह का त्याग किया जा सकता है। इसीलिए आचेलक्य मुमुक्षु का मूलगुण बतलाया गया है और वस्त्र, चर्म, वल्कल अथवा पत्तों से शरीर को आवृत न करना आचेलक्य का लक्षण कहा गया है। (मूलाचार / गा. ३०)।।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपरिग्रह की परिभाषा में आचार्य वट्टकेर ने कुन्दकुन्द का अनुसरण किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इच्छा के अभाव को अपरिग्रह कहा है-'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स.सा. / गा. २१०-२१३)। वट्टकेर ने भी 'अपरिग्गहा अणिच्छा' (मूला./ उत्त./ गा. ७८५) कहकर अनिच्छा और अपरिग्रह को समानार्थी बतलाया है। और कसायपाहुड में इच्छा और मूर्छा को एकार्थक निरूपित किया गया
१९. देखिए , पादटिप्पणी १७।
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