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________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७९ "१. द्वात्रिंशकाएँ जिस क्रम से छपी हैं, उसी क्रम से निर्मित नहीं हुई हैं। "२. उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन के द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होती। ___ ३. न्यायावतार की गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती। "४. द्वात्रिंशिकाओं की संख्या में जो घट-बढ़ पाई जाती है वह, रचना के बाद हुई है और उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है, जोकि किसी के द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजन के लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओं का पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है। "५. उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं का प्रबन्धों में वर्णित द्वात्रिंशिकाओं के साथ, जो सब स्तुत्यात्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिग्रंथ 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की अंग जान पड़ती हैं, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दूसरे से भिन्न तथा भिन्नकर्तृक प्रतीत होती हैं। "ऐसी हालत में किसी द्वात्रिंशिका का कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलता है, तो उसे उसी द्वात्रिंशिका तथा उसके कर्ता तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओं में से किसी दूसरी द्वात्रिंशिका के विषय के साथ उसे जोड़कर उस पर से कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये, जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिंशिकाकार की कृति है। अस्तु।"(पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १३१-१३२)। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन केवल 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता । "अब देखना यह है कि इन द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार में से कौन-सी रचना सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन आचार्य की कृति है अथवा हो सकती है? इस विषय में पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने अपनी प्रस्तावना में यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ, न्यायावतार और 'सन्मति' ये सब एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हैं, और ये सिद्धसेन वे हैं, जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धों के अनुसार वृद्धवादी के शिष्य थे और दिवाकर नाम के साथ प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। दूसरे श्वेताम्बर विद्वानों का बिना किसी जाँच-पड़ताल के अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्ति का मूल है, जिसके कारण सिद्धसेन-विषयक जो भी परिचय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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