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________________ ४७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओं को अन्याः स्तुती: लिखा है, वे श्रीवीर से भिन्न दूसरे ही तीर्थङ्करादि की स्तुतियाँ जान पड़ती हैं और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के प्रथम ग्रूप द्वात्रिंशिकापञ्चक में उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिसमें की प्रत्येक द्वात्रिंशिका श्रीवीरभगवान से ही सम्बन्ध रखती है । उक्त तीनों प्रबन्धों के बाद बने हुए विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश ( चतुर्विंशतिप्रबन्ध) में स्तुति का प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रं' इत्यादि पद्य से होता है, जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के प्रथम ग्रूप का प्रथम पद्य है, इसे देकर "इत्यादि श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" ऐसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओं का सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं के साथ जोड़ने के लिये बाद को अपनाया गया मालूम होता है, क्योंकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धों से इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धों से इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है। दूसरे, इन दोनों ग्रंथों में द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका को एकमात्र श्री वीर से सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी देवं स्तोतुमुपचक्रमे शब्दों के द्वारा स्तुति ही बतलाया गया है, परन्तु उस स्तुति को पढ़ने से शिवलिंग का विस्फोट होकर उसमें से वीरभगवान् की प्रतिमा का प्रादुर्भूत होना किसी ग्रंथ में भी प्रकट नहीं किया गया । विविधतीर्थकल्प के कर्ता ने आदिनाथ की, और प्रबन्धकोश के कर्ता ने पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रकट होना बतलाया है । और यह एक असंगत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थंकर की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थंकर की प्रकट होवे । (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १३० - १३१)। " इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में उक्त १४ द्वात्रिंशिकाएँ, जो स्तुतिविषय तथा वीर की स्तुति से सम्बन्ध नहीं रखतीं, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओं में परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलाल जी तथा पं० बेचरदास जी का प्रस्तावना में यह लिखना कि "शुरुआत में दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवनवृत्तान्त में स्तुत्यात्मक बत्तीसियों (द्वात्रिंशिकाओं) को ही स्थान देने की जरूरत मालूम हुई और इनके साथ में संस्कृत भाषा तथा पद्यसंख्या में समानता रखनेवाली, परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं, ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके जीवनवृत्तान्त में स्तुत्यात्मक कृतिरूप में ही दाखिल हो गईं और पीछे किसी ने इस हकीकत को देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्तीसियों में कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन - कौन स्तुतिरूप नहीं हैं" और इस तरह सभी प्रबंध - रचयिता आचार्यों को ऐसी मोटी भूल के शिकार बतलाना कुछ भी जी को लगनेवाली बात मालूम नहीं होती। उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं की संगति बिठलाने का प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होने से समुचित प्रतीत नहीं होता । द्वात्रिंशिकाओं की इस सारी छान-बीन पर से निम्न बातें फलित होती हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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