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________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७७ की स्तुति से सम्बन्ध है और जो उस अवसर पर उच्चरित कही जा सकती हैं, शेष १४ द्वात्रिंशिकाएँ न तो स्तुति - विषयक हैं, न उक्त प्रसंग के योग्य हैं और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती, जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेन ने शिवलिङ्ग के सामने बैठ कर की थी।" (पु.जै.वा.सू / प्रस्ता. / पृ. १३०) । "यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकचरित के अनुसार स्तुति का प्रारम्भ "प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयं" इत्यादि श्लोकों से हुआ है, जिनमें से 'तथा हि' शब्द के साथ चार श्लोकों १० को उद्धृत करके उनके आगे इत्यादि लिखा गया है। और फिर 'न्यायावतारसूत्रं च' इत्यादि श्लोक द्वारा ३२ कृतियों की और सूचना की गई है, जिनमें से एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और ३० बत्तीस-बत्तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रबन्धचिन्तामणि के अनुसार स्तुति का प्रारम्भ प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ " इस श्लोक से होता है, जिसके अनन्तर " इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता " लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुति का प्रथम श्लोक है। इस श्लोक तथा उक्त चारों श्लोकों में से किसी से भी प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओं का प्रारंभ नहीं होता है, न ये श्लोक किसी द्वात्रिंशिका में पाये जाते हैं और न इनके साहित्य का उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओं के साहित्य के साथ कोई मेल ही खाता है । ऐसी हालत में इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्ध में उल्लेखित द्वात्रिंशिका - स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये । प्रभावकचरित के उल्लेख पर से इसका और भी समर्थन होता है, क्योंकि उसमें श्रीवीरस्तुति के १०. चारों श्लोक इस प्रकार हैंप्रकाशितं त्वयैकेन यथा समस्तैरपि नो नाथ ! विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि त्वद्वाक्यतोऽपि केषाञ्चिदबोध तथा भानोर्मरीचयः कस्य नाम नो वाद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ १४२ ॥ Jain Education International सम्यग्जगत्त्रयम् । वरतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १३९॥ किं तारकागणः ॥ १४० ॥ इति मेऽद्भुतम् । नालोकहेतवः ॥ १४१ ॥ क्लिष्टचेतसः । लिखित पद्यप्रबन्ध में भी ये ही चारों श्लोक 'तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुई' इत्यादि साथ दिये हैं । ( स. प्र./ पृ. ५४ / टि. ५८) । पद्य के अनन्तर यथा शब्द के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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