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________________ ४७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ बराबर दिया हुआ है, फिर यही उससे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता। अतः जरूरत इस बात की है कि द्वात्रिंशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय। इससे अनुपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भी यदि कोई होंगी, तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से वे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकेंगी, जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलाल जी आदि को भी भारी शिकायत है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १२९-१३०)। "दूसरी बात यह कि द्वात्रिंशिकाओं को स्तुतियाँ कहा गया है और इनके अवतार का प्रसङ्ग भी स्तुति-विषयक ही है, क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धों के अनुसार विक्रमादित्य राजा की ओर से शिवलिंग को नमस्कार करने का अनुरोध होने पर जब सिद्धसेनाचार्य ने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार सहन करने में समर्थ नहीं है, मेरा नमस्कार सहन करनेवाले दूसरे ही देवता हैं, तब राजा ने कौतुकवश, परिणाम की कोई परवाह न करते हुए नमस्कार के लिए विशेष आग्रह किया। इस पर सिद्धसेन शिवलिंग के सामने आसन जमाकर बैठ गये और इन्होंने अपने इष्टदेव की स्तुति उच्चस्वर आदि के साथ प्रारम्भ कर दी; जैसा कि निम्न वाक्यों से प्रकट है श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिंगस्य स प्रभुः। उदाजह्वे स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरस्तदा॥ १३८॥ प्रभावकचरित। "ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तुतिमुपचक्रमे।" ___ विविध-तीर्थकल्प, प्रबन्धकोश। परन्तु उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओं में स्तुतिपरक द्वात्रिंशिकाएँ केवल सात ही हैं, जिनमें भी एक राजा की स्तुति होने से देवताविषयक स्तुतियों की कोटि से निकल जाती है और इस तरह छह द्वात्रिंशिकाएँ ही ऐसी रह जाती हैं, जिनका श्रीवीरवर्द्धमान ८. "सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसियाहिं जिणथुई"--- गद्यप्रबन्ध-कथावली। तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुई समत्ताहिं। बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं उद्दामसद्देण॥ पद्यप्रबन्ध / स.प्र./ पृ.५६। न्यायावतारसूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ। द्वात्रिंशच्छ्लोकमानाश्च त्रिंशदन्याः स्तुतीरपि॥ १४३॥ प्रभावकचरित। ९. ये मत्प्रणामसोढारस्ते देवा अपरे ननु। किं भावि प्रणम त्वं द्राक प्राह राजेति कौतुकी॥ १३५॥ देवान्निजप्रणम्यांश्च दर्शय त्वं वदन्निति। भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे नृप॥ १३६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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