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________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७५ है कि ये नामवाली दोनों द्वात्रिंशिकाएँ अपने स्वरूप पर से एक नहीं, किन्तु दो अलगअलग सिद्धसेनों से सम्बन्ध रखती हों और शेष बिना नामवाली द्वात्रिंशिकाएँ इनसे भिन्न दूसरे ही सिद्धसेन अथवा सिद्धसेनों की कृतिस्वरूप हों। पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने पहली पाँच द्वात्रिंशिकाओं को, जो वीर भगवान् की स्तुतिपरक हैं, एक ग्रूप (समुदाय) में रक्खा है और उस ग्रूप (द्वात्रिंशिकापंचक) का स्वामी समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र के साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि "स्वयम्भूस्तोत्र का प्रारंभ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्द से होता है और अन्तिम पद्य (१४३) में ग्रन्थकार ने श्लेषरूप से अपना नाम समन्तभद्र सूचित किया है, उसी प्रकार इस द्वात्रिशिकापंचक का प्रारम्भ भी स्वयम्भू शब्द से होता है और उसके अन्तिम पद्य (५,३२) में भी ग्रंथकार ने श्लेषरूप में अपना नाम सिद्धसेन दिया है।" इससे शेष १५ द्वात्रिंशिकाएँ भिन्न ग्रूप अथवा ग्रूपों से सम्बन्ध रखती हैं और उनमें प्रथम ग्रूप की पद्धति को न अपनाये जाने अथवा अंत में ग्रंथकार का नामोल्लेख तक न होने के कारण वे दूसरे सिद्धसेन या सिद्धसेनों की कृतियाँ भी हो सकती हैं। उनमें से ११वीं किसी राजा की स्तुति को लिये हुए है, छठी तथा आठवीं समीक्षात्मक हैं और शेष बारह दार्शनिक तथा वस्तुचर्चावाली हैं।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १२९)। "इन सब द्वात्रिंशिकाओं के सम्बन्ध में यहाँ दो बातें और भी नोट किये जाने के योग्य हैं-एक यह कि द्वात्रिंशिका (बत्तीसी) होने के कारण जब प्रत्येक की पद्यसंख्या ३२ होनी चाहिये थी, तब वह घट-बढ़रूप में पाई जाती है। १०वीं में दो पद्य तथा २१वीं में एक पद्य बढ़ती है, और ८वीं में छह पद्यों की, ११वीं में चार की तथा १५वीं में एक पद्य की घटती है। यह घट-बढ़ भावनगर की उक्त मुद्रित प्रति में ही नहीं पाई जाती, बल्कि पूना के भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट और कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी की हस्तलिखित प्रतियों में भी पाई जाती है। रचना-समय की तो यह घट-बढ़ प्रतीति का विषय नहीं, पं० सुखलाल जी आदि ने भी लिखा है कि "बढ़-घट की यह घालमेल रचना के बाद ही किसी कारण से होनी चाहिये।" इसका एक कारण लेखकों की असावधानी हो सकता है, जैसे १९वीं द्वात्रिंशिका में एक पद्य की कमी थी, वह पूना और कलकत्ता की प्रतियों से पूरी हो गई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किसी ने अपने प्रयोजन के वश घालमेल की हो। कुछ भी हो, इससे उन द्वात्रिंशिकाओं के पूर्णरूप को समझने आदि में बाधा पड़ रही है, जैसे ११वीं द्वात्रिंशिका से यह मालूम ही नहीं होता कि वह कौन से राजा की स्तुति है, और इससे उसके रचयिता तथा रचना-काल को जानने में भारी बाधा उपस्थित है। यह नहीं हो सकता कि किसी विशिष्ट राजा की स्तुति की जाय और उसमें उसका नाम तक भी न हो। दूसरी स्तुत्यात्मक द्वात्रिंशिकाओं में स्तुत्य का नाम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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