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________________ ४७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका ३२-३२ पद्यों की ३२ कृतियाँ बतलाई जाती हैं, जिनमें से २१ उपलब्ध हैं। उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भावनगर की जैनधर्मप्रसारक सभा की तरफ से विक्रम संवत् १९६५ में प्रकाशित हो चुकी हैं। ये जिस क्रम से प्रकाशित हुई हैं, उसी क्रम से निर्मित हुई हों, ऐसा उन्हें देखने से मालूम नहीं होता, वे बाद को किसी लेखक अथवा पाठक द्वारा उस क्रम से संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती हैं। इस बात को पं० सुखलाल जी आदि ने भी प्रस्तावना में व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि "ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ सिद्धसेन ने जैनदीक्षा स्वीकार करने के पीछे ही रची हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमें से कितनी ही द्वात्रिंशिकाएँ (बत्तीसियाँ) उनके पूर्वाश्रम में भी रची हुई हो सकती हैं।" और यह ठीक है, परन्तु ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की रची हुई हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, चुनाँचे २१वीं द्वात्रिंशिका के विषय में पं० सुखलाल जी आदि ने प्रस्तावना में यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि "उसकी भाषारचना और वर्णित वस्तु की दूसरी बत्तीसियों के साथ तुलना करने पर ऐसा मालूम होता है कि वह बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेन की कृति है और चाहे जिस कारण से दिवाकर (सिद्धसेन) की मानी जाने वाली कृतियों में दाखिल होकर दिवाकर के नाम पर चढ़ गई है।" इसे महावीरद्वात्रिंशिका लिखा है, महावीर नाम का इसमें उल्लेख भी है, जबकि और किसी द्वात्रिंशिका में 'महावीर' उल्लेख नहीं है, प्रायः 'वीर' या 'वर्द्धमान' नाम का ही उल्लेख पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या ३३ है और ३३ वें पद्य में स्तुति का माहात्म्य दिया हुआ है, ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिंशिकाओं से विलक्षण हैं और उनसे इसके भिन्नकर्तृत्व की द्योतक हैं। इस पर टीका भी उपलब्ध है, जब कि और किसी द्वात्रिंशिका पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है। चंद्रप्रभसूरि ने प्रभावकचरित में न्यायावतावर की, जिस पर टीका उपलब्ध है, गणना भी ३२ द्वात्रिंशिकाओं में की है, ऐसा कहा जाता है, परन्तु प्रभावकचरित में वैसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और न उसका समर्थन पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अन्य किसी प्रबन्ध से ही होता है। टीकाकारों ने भी उसके द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका का अंग होने की कोई बात सूचित नहीं की, और इसलिये न्यायावतार एक स्वतंत्र ही ग्रंथ होना चाहिये तथा उसी रूप में प्रसिद्धि को भी प्राप्त है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १२८-१२९)। "२१वीं द्वात्रिंशिका के अन्त में सिद्धसेन नाम भी लगा हुआ है, जब कि ५वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर और किसी द्वात्रिंशिका में वह नहीं पाया जाता। हो सकता ७. यह द्वात्रिंशिका अलग ही है, ऐसा ताडपत्रीय प्रति से भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिंशिकाएँ अंकित हैं और उनके अन्त में "ग्रन्थाग्रं ८३० मंगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थ की समाप्ति के साथ उसकी श्लोकसंख्या का भी द्योतक है। जैनग्रन्थावली (पृ. २८१)-गत ताडपत्रीय प्रति में भी २० द्वात्रिंशिकाएँ हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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