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________________ ४८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ लेख अब तक लिखे गये, वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियों को फैला रहे हैं और उनके द्वारा सिद्धसेन के समयादिक का ठीक निर्णय नहीं हो पाता। इसी मान्यता को लेकर विद्वद्वर पं० सुखलाल जी की स्थिति सिद्धसेन के समयसम्बन्ध में बराबर डाँवाडोल चली जाती है। आप प्रस्तुत सिद्धसेन का समय कभी विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्व ५वीं शताब्दी १ बतलाते हैं, कभी छठी शताब्दी का भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूप में छठी या सातवीं शताब्दी१३ निर्दिष्ट करते हैं और कभी ५वीं तथा ६ठीं शताब्दी का मध्यवर्ती काल १४ प्रतिपादन करते हैं। और बड़ी मजे की बात यह है कि जिन प्रबन्धों के आधार पर सिद्धसेन दिवाकर का परिचय दिया जाता है, उनमें न्यायावतार का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्ध में पाया भी जाता है, परन्तु सिद्धसेन की कृतिरूप में सन्मतिसूत्र का कोई उल्लेख कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। इतने पर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेन की कृतियों में उसे भी शामिल किया जाता है! यह कितने आश्चर्य की बात है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १३२-१३३)। "ग्रन्थ की प्रस्तावना में पं० सुखलाल जी आदि ने, यह प्रतिपादन करते हुए कि "उक्त प्रबन्धों में वे द्वात्रिंशिकाएँ भी, जिनमें किसी की स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनों तथा स्वदर्शन के मन्तव्यों के निरूपण तथा समालोचन को लिये हुए हैं, स्तुतिरूप में परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवन में उनकी कृतिरूप से स्थान मिला है," इसे एक 'पहेली' ही बतलाया है, जो स्वदर्शन का निरूपण करनेवाले और द्वात्रिंशिकाओं से न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) सन्मतिप्रकरण को दिवाकर के जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियों में स्थान क्यों नहीं मिला। परन्तु इस पहेली का कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि "सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता, तो वह प्राकृतभाषा में होते हुए भी दिवाकर के जीवनवृत्तान्त में स्थान पाई हुई संस्कृतबत्तीसियों के साथ में परिगणित हुए बिना शायद ही रहता।" पहेली का यह हल कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। प्रबन्धों से इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बात का कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जो द्वात्रिंशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं, वे सब दिवाकर सिद्धसेन के जीवनवृत्तान्त में दाखिल हो गई हैं और उन्हें भी उन्हीं ११. सन्मतिप्रकरण/ प्रस्तावना / पृ. ३९,४३,६४,९४। १२. ज्ञानबिन्दु-परिचय/ पृ.६। १३. सन्मतिप्रकरण के अंग्रेजी संस्करण का फोरवर्ड (Forword) और भारतीयविद्या में प्रकाशित 'श्रीसिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रश्न' नाम लेख (भारतीय विद्या/तृतीय भाग/ पृ. १५२)। १४. 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' नामक लेख (भारतीयविद्या / तृतीय भाग/ पृ. ११)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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