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________________ अ० १८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८१ सिद्धसेन की कृतिरूप से उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादन का ही समर्थन होता, प्रबन्धवर्णित जीवनवृत्तान्त में उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरित में न्यायावतार का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जस उल्लेख मिलता है, उस पर से उसकी गणना उस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका के अङ्गरूप में नहीं की जा सकती, जो सब जिन-स्तुतिपरक थी, वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है, जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है। और सन्मतिप्रकरण का बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेन के जीवनवृत्तान्त से सम्बद्ध कृतियों में उसके परिगणित होने के लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकता, खासकर उस हालत में जब कि चवालीस पद्यसंख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्र को उनकी कृतियों में परिगणित किया गया है और प्रभावकचरित में इस पद्यसंख्या का स्पष्ट उल्लेख भी साथ में मौजूद है।५ वास्तव में प्रबन्धों पर से यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकर की कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादी के शिष्य थे और जिन्हें आगमग्रन्थोंको संस्कृत में अनुवादित करने का अभिप्रायमात्र व्यक्त करने पर पारञ्चिकप्रायश्चित्त के रूप में बारह वर्ष तक श्वेताम्बरसंघ से बाहर रहने का कठोर दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ को उन्हीं सिद्धसेन की कृति बतलाना, यह सब बाद की कल्पना और योजना ही जान पड़ती है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता/पृ. १३३)। समान प्रतिभा का हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास-"पं० सुखलाल जी ने प्रस्तावना में तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र का एककर्तृत्व प्रतिपादन करने के लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियों को एक ही आचार्यकृत माना जा सके। प्रस्तावना में केवल इतना ही लिख दिया है कि "इन सबके पीछे रहा हुआ प्रतिभा का समान तत्त्व ऐसा मानने के लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभा के फल हैं।" यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकार से अपनी मान्यता का प्रकाशनमात्र है, क्योंकि इन सभी ग्रन्थों पर से प्रतिभा का ऐसा कोई असाधारण समान तत्त्व उपलब्ध नहीं होता, जिसका अन्यत्र कहीं भी दर्शन न होता हो। स्वामी समन्तभद्र के मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमांसा ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकों ने दोनों में पुष्कल साम्य का होना स्वीकार किया है और दोनों आचार्यों की ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभा का कितना ही चित्रण किया है। और भी अकलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही आचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थों के पीछे रहनेवाली प्रतिभा से कम नहीं है, तब प्रतिभा की समानता ऐसी कोई बात नहीं रह १५. ततश्चतुश्चत्वारिंशवृत्तां स्तुतिमसौ जगौ। कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने ॥ १४४॥ वृद्धवादिप्रबन्ध/ पृ. १०१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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