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________________ ४८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ जाती, जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधार पर इन सब ग्रन्थों को, जिनके प्रतिपादन में परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक ही आचार्यकृत नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है समानप्रतिभा के उक्त लालच में पड़कर ही बिना किसी गहरी जाँच-पड़ताल के इन सब ग्रन्थों को एक ही आचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यता को प्रश्रय दिया गया है, जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थों की अन्तःपरीक्षादि पर से मुझे इस बात का पता चला है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन से भिन्न हैं। यदि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेन की कृतियाँ हों, तो वे उनमें से किसी भी द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं। न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन की भी ऐसी ही स्थिति है। वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन से जहाँ भिन्न हैं, वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन से भी भिन्न हैं और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एक से अधिक सिद्धसेनों की कृतियाँ हों, तो वे उनमें से कुछ के कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसी के भी कर्ता नहीं बन सकते। इस तरह 'सन्मतिसूत्र' के कर्ता, 'न्यायावतार' के कर्ता और कतिपय 'द्वात्रिंशिकाओं' के कर्ता तीन सिद्धसेन अलग-अलग हैं। शेष द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता इन्हीं में से कोई एक या दो अथवा तीनों हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिका के कर्ता इन तीनों से भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्धसेनों का अस्तित्वकाल एक दूसरे से भिन्न अथवा कुछ अन्तराल को लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्र के कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतार के कर्ता हैं। नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातों को संक्षेप में स्पष्ट करके बतलाया जाता है५.१. सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन अभेदवाद (एकोपयोगवाद) के पुरस्कर्ता .. "सन्मतिसूत्र के द्वितीय काण्ड में केवली के ज्ञान-दर्शन-उपयोगों की क्रमवादिता और युगपद्वादिता में दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिता का स्थापन किया है। साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण का युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होते और केवली में क्रमशः भी नहीं होते। इन ज्ञान और दर्शन उपयोगों का भेद मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान हो जाने पर दोनों में कोई भेद नहीं रहता। तब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनों में कोई विषयभेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थों से अपने इस कथन की सङ्गति बिठलाने के लिये दर्शन की 'अर्थविशेषरहित निराकर सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है, उसे भी बदल कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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