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________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४८३ रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि 'अस्पृष्ट तथा अविषयरूप पदार्थ में अनुमानज्ञान को छोड़कर जो ज्ञान होता है, वह दर्शन है।' इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥ ३ ॥ Jain Education International केई भांति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥ ४ ॥ केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥ ५ ॥ सुत्तम्मि चेव 'साई अपज्जवसियं' ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरू तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ ७॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स केवलणाणम्मि य दंसणस्स संभवो णत्थि । तम्हा सहिणाई ॥ ८ ॥ अण्णायं पासंतो अद्दिनं किं जाणइ किं पासइ कह णाणं अप्पुट्ठे अविसए मोत्तूण लिंगओ जं जं अप्पुट्ठे भावे तम्हा तं णाणं दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं । होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुवे णत्थि उवओगा ॥ ९ ॥ च अरहा वियाणंतो । सव्वण्णू त्ति वा होइ ॥ १३ ॥ य अत्थम्मि दंसणं होइ । अणागयाईयविससु ॥ २५ ॥ जाणइ पासइ य केवली णियमा । दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥ ३० ॥ " इसी से सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन अभेदवाद के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानबिन्दु के कर्ता उपाध्याय यशोविजय ने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। ज्ञानबिन्दु में तो एतद्विषयक सन्मति - गाथाओं की व्याख्या करते हुए उनके इस वाद को श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमतं (सिद्धसेन की अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक लिखा है। ज्ञानबिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना के आदि में पं० सुखलाल जी ने भी ऐसी ही घोषणा की है। " (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ. १३३ - १३५) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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