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२७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ नाम से अयाचना के भाव की उत्पत्ति को परीषह बतलाया है। अर्थात् उन्होंने यह प्ररूपण किया है कि याचना का भाव उत्पन्न होना परीषह नहीं है, अपितु याचना को हेय समझने का भाव उत्पन्न होना परीषह है, इसलिए आहार, वस्त्र, पात्रादि की याचना को हेय समझने का भाव त्यागकर याचना करना अयाचना-परीषहजय है। इस तरह उन्होंने अयाचनापरीषहजय को निर्जरा का कारण बतलाया है, किन्तु नाम याचनापरीषहजय ही रखा है, ताकि तत्त्वार्थसूत्र के याचनापरीषहजय से साम्य प्रतीत हो। देखिए तत्त्वार्थसूत्र के वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि के निम्नलिखित वचन
"याचनं मार्गणं भिक्षोर्वस्त्रपात्रान्नपानप्रतिश्रयादेः परतो लब्धव्यं सर्वमेव साधुना अतो याचनमवश्यमेव कार्यमित्येवं याच्यापरीषहजयः।" ४३
अनुवाद-“साधु को वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, प्रतिश्रय आदि सभी वस्तुएँ दूसरों से प्राप्त करनी पड़ती हैं, इसलिए साधु को याचना अवश्य करनी चाहिए, यही याचनापरीषहजय है।"
यहाँ हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि याचना करना ही याचनापरीषहजय है। इससे स्पष्ट होता है कि हरिभद्रसूरि की दृष्टि से याचना को हेय समझने की बुद्धि उत्पन्न होना याच्यापरीषह है, जो मानकषाय के उदय का परिणाम है। इस प्रकार याचनापरीषहजय के अर्थ को उलट-पुलट कर हरिभद्रसूरि ने उसे श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने की कोशिश की है। इस उलट-पुलट को युक्तिसंगत बनाने के लिए उन्होंने एक और उलट-पुलट की है।५ यह आगम में प्रसिद्ध है और मनोवैज्ञानिक सत्य भी है कि किसी भी वस्तु की याचना का भाव लोभकषाय के उदय से उत्पन्न होता है।५ लोभकषाय के उदय से ही मनुष्य आत्मगौरव या लज्जा का परित्याग कर याचना के लिए मजबूर होता है। और याचना का भाव उत्पन्न न होना लोभकषाय के उदयाभाव का लक्षण है तथा वह आत्मा का स्वाभाविक भाव है। किन्तु श्री हरिभद्रसूरि ने आगम और मनोविज्ञान के विरुद्ध जाते हुए याचना का भाव उत्पन्न न होने को या उसे हेय समझने को मानकषाय के उदय का परिणाम कहा है। और याचना का भाव उत्पन्न होने को अथवा उसे उपादेय मानने को मानकषाय के उदयाभाव का लक्षण एवं आत्मा का शुद्ध भाव बतलाया है, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। अर्थात् भोजन, वस्त्र, पात्र, शय्या, ओषधि आदि पदार्थों को माँगने की इच्छा
४३. हारिभद्रीयवृत्ति/ तत्त्वार्थसूत्र ९/९/ पृ. ४६३। . ४४. "मानोदयाद् याच्यापरीषहः।" हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र /९/१५/ पृ. ४६७। ४५. "मानकषाये क्रोधे चाक्रोशः, लोभे याचना, माने सत्कारपुरकाराभिनिवेश इति।" तत्त्वार्थराज
वार्तिक (भारतीय ज्ञानपीठ) ९/१५/ पादटिप्पणी १/पृ. ६१५ ।
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