SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २७५ है। नग्न मुद्राधारी निर्ग्रन्थ मुनि को वस्त्रपात्रादि पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती। उन्हें सिर्फ आहार औषधि, वसतिका, शास्त्र तथा पिच्छी-कमण्डलु की जरूरत होती है। इनके लिए वे दीनताभरे शब्द बोलकर, मुख की विवर्णता दिखलाकर या संकेत आदि के द्वारा याचना नहीं करते। आहार के समय वे श्रावकों की बस्ती में जाकर केवल अपना शरीर दिखला देते हैं। इतने मात्र से यदि कोई श्रावक नवधाभक्तिपूर्वक शुद्ध आहार प्रदान करता है, तो ग्रहण कर लेते हैं, अन्यथा प्राण जाने की नौबत आ जाने पर भी वे किसी से याचना नहीं करते।४२ १.३.१०. दिन को रात बना देने का अद्भुत साहस-किन्तु याचनापरीषहजय श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में मान्य नहीं है, वहाँ अयाचनापरीषह-जय को याचनापरीषहजय का नाम दे दिया गया है। जैसा छलप्रपञ्च वहाँ नाग्न्य शब्द के विषय में किया गया है, वैसा ही याचना शब्द के विषय में भी किया गया है। 'नाग्न्य' शब्द को अनाग्न्य (वस्त्रसहित होने) का वाचक सिद्ध करने की कोशिश की है, तो याचना को अयाचना का। यह दिन को रात बना देने के अद्भुत साहस का उदाहरण है। श्वेताम्बर साधु-साध्वियों को केवल आहार, ओषधि और वसतिका की ही आवश्यकता नहीं होती, अपितु उन्हें वस्त्र, पात्र, दण्ड, कम्बल, पादपुंछन, शय्या, आसन, दन्तशोधनी, नखशोधनी, सुई-धागा, साबुन-पानी आदि अनेक वस्तुओं की भी जरूरत होती है। इन सबकी उन्हें गृहस्थों से याचना करनी पड़ती है। याचनीय वस्तुओं और याचनाविधि का विवरण आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पिण्डैषणा (आहार की याचना), शय्यैषणा (उपाश्रय की याचना), वस्त्रैषणा (वस्त्रों की याचना), पात्रैषणा (पात्रों की याचना), अवग्रहैषणा (ध्यान आदि के योग्य स्थान की याचना) आदि अध्ययनों में दिया गया है। चूंकि श्वेताम्बर भिक्खु-भिक्खुणियों को ये सब वस्तुएँ गृहस्थों से याचना करके ही प्राप्त करनी पड़ती हैं, इसलिए श्वेताम्बरमत में याचनापरीषहजय अर्थात् याचना का त्याग सम्भव नहीं है। इससे जाहिर है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित याचनापरीषह श्वेताम्बर साधुओं पर घटित नहीं होता, दिगम्बरों पर ही चरितार्थ होता है। किन्तु श्वेताम्बराचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बराचार्यकृत सिद्ध करने के लिए याचनापरीषह को उसका अर्थ उलट-पुलट कर श्वेताम्बर साधुओं पर घटाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने नाम तो याचनापरीषह ही रहने दिया है, लेकिन याचनापरीषह के ४२. "प्राणात्यये सत्यप्याहारवसतिभेषजादीनि दीनाभिधानमुखवैवाङ्गसंज्ञादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्युदुद्योतवद् दुरुपलक्ष्यमूर्तेर्याचनापरीषहसहनमवसीयते।" स.सि./९/९/ ८२८। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy