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________________ २७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ १.३.८. परीषहजय की कल्पित परिभाषा युक्तिसंगत नहीं-और जो यह कहा गया है कि अनेषणीय वस्त्र धारण न कर एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय है, वह भी असंगत है। क्योंकि एषणीय वस्त्र धारण करने से साधु नग्न रहता ही नहीं है, तब न तो नाग्न्य (नग्नताजन्य) परीषह होने का अवसर रहता है, न नाग्न्यपरीषहजय का। अतः सवस्त्र साधु पर नाग्न्यपरीषह घटित न होने से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने दिगम्बर साधु को दृष्टि में रखकर ही सम्पूर्ण मोक्षमार्ग का वर्णन किया है, फलस्वरूप उन्हें सवस्त्रमुक्ति स्वीकार्य नहीं है। और अनेषणीय आहार ग्रहण न कर एषणीय आहार से क्षुधातृप्ति करना क्षुधापरीषहजय है, यह परिभाषा भी युक्तिसंगत नहीं है। एषणीय आहार से क्षुधातृप्ति कर लेने पर क्षुधापीड़ा के अभाव में क्षुधापरीषहजय का अवसर ही नहीं रहता। अतः एषणीय आहार न मिलने पर जब अनेषणीय आहार ग्रहण न करते हुए.क्षुधा की पीड़ा समभाव से सहन की जाती है, तब क्षुधापरीषहजय होता है। किन्तु नाग्न्यपरीषह की तुलना क्षुधापरीषह से नहीं की जा सकती, क्योंकि क्षुधापीड़ा का एषणीय आहार से निवारण न करने पर शरीर स्थित नहीं रह सकता, जब कि नाग्न्यजन्य पीड़ा का वस्त्रधारण करके निवारण न किया जाय, तो भी शरीर की स्थिति बनी रह सकती है। और नाग्न्यजन्य शीतादिपरीषहों को समभाव से सहते हुए ध्यान-अध्ययन आदि की क्रियाएँ भी निर्विघ्न सम्पन्न होती हैं। समयसार आदि जैसे महान् ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द-सदृश भूतकालीन दिगम्बर मुनिगण और आचार्य विद्यासागर जैसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी और तपोनिष्ठ वर्तमानकालीन अनेक दिगम्बरमुनि इसके साक्षात् उदाहरण हैं। निष्कर्ष यह कि एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय का विरोधी है। यह नाग्न्यपरीषहजय नहीं, नाग्न्यपरीषह-निवारण है। इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित नाग्न्यपरीषहजय एवं शीतादिपरीषहजय सवस्त्र साधुओं पर चरितार्थ नहीं होते, नग्न साधुओं पर ही होते हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्रकार सवस्त्रमुक्ति-विरोधी हैं, जबकि भाष्यकार सवस्त्रमुक्ति के पोषक हैं। इस तरह दोनों के सम्प्रदाय सर्वथा भिन्न हैं। १.३.९. याचनापरीषहजय भी सवस्त्रमुक्तिविरोधी-तत्त्वार्थसूत्र में याचनापरीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन उसके सवस्त्रमुक्तिनिषेधक होने का एक और प्रबल प्रमाण है। याचना का अर्थ है किसी से कुछ माँगना। किसी से कुछ माँगने की इच्छा चारित्रमोहनीय कर्म की लोभ नामक प्रकृति के उदय से उत्पन्न होती है। यह परीषह है। इसे जीतना अर्थात् किसी से कुछ न माँगना याचनापरीषहजय ४१. देखिये, पादटिप्पणी २२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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