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________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २७३ नहीं हैं। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने भी 'नाग्न्य' के मुख्य और उपचरित भेदों की चर्चा नहीं की है। जाय, २. यदि तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नाग्न्यपरीषह को उपचार- नाग्न्यपरीषह माना तो उसे जीतने से होनेवाले संवरादि को भी उपचारसंवर, उपचारनिर्जरा और उपचारमोक्ष मानना होगा। इससे तत्त्वार्थसूत्र मुख्य ( यथार्थ) मोक्षमार्ग का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध न होकर मोक्षमार्ग के नाम पर किसी अन्य मार्ग का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध होगा । ऐसा ग्रन्थ रचने की आशा हम गृध्रपिच्छाचार्य या उमास्वाति जैसे सम्यग्दृष्टि एवं महाव्रती आचार्य से नहीं कर सकते। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नग्न शब्द का प्रयोग सचेलमुनि के लिये नहीं, अपितु सर्वांग निर्वस्त्र मुनि के लिये ही किया है। ३. नाग्न्यपरीषह का जो लक्षण टीकाकारों ने किया है, उसके अनुसार वह वास्तविक नग्न को ही हो सकता है, उपचरित - नग्न को नहीं । श्वेताम्बराचार्य श्री सिद्धसेन गणी एवं श्री हरिभद्रसूरि ने चारित्रमोह की जुगुप्सा नामक प्रकृति के उदय से होनेवाली जुगुप्सा को नाग्न्यपरीषह कहा है – “ नाग्न्यं जुगुप्सोदयात्" (सिद्धसेनीयवृत्ति एवं हारिभद्रीयवृत्ति / त.सू.९/१५ ) । स्थानांगसूत्र में तीन कारणों से वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है - लज्जानुभव, जुगुप्साभय तथा परीषह सहने में असमर्थता । ३९ विशेषावश्यकभाष्यवृत्तिकार हेमचन्द्रसूरि ने जुगुप्सा का अर्थ लोकविहितनिन्दा बतलाया है"दुगंछावत्तियं --- जुगुप्सा लोकविहिता निन्दा सा प्रत्ययो यस्य " (विशे.भा./गा.२५५७) । नग्न रहने पर पुरुषांग के दिखाई देने तथा कदाचित् लिंगोत्थान हो जाने पर अत्यन्त अश्लील अवस्था प्राप्त हो जाने से लोकनिन्दा होती है। इसे नाग्न्यपरीषह कहते हैं । यह वस्त्रधारी मुनियों के लिए संभव नहीं है। इससे वचने के लिए ही तो वे वस्त्रधारण करते हैं। इससे साबित होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय का विधान परमार्थतः नग्न (दिगम्बर) मुनि के लिये ही किया है, उपचरितनग्न ( सवस्त्र) मुनि के लिए नहीं । ३९. “तिहिं ठाणेहिं वत्थंधारेज्जा । तं जहा - हिरिपत्तियं दुगंछापत्तियं परीसहपत्तियं ।" स्थानांगसूत्र / ३/३/३४७ / १५० । ४०. क — “लौकैरपि वस्त्रपरिधानं मुख्यवृत्या असभ्यावयवगोपननिमित्तमेव क्रियते ।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / २ / ३१ /पृ. ९३ । ख– “स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टोमत इति ।" हेमचन्द्रसूरिवृत्ति / विशेषा .वश्यकभाष्य / गा. २५७५- ७९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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