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________________ २७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ अन्तर्गत 'नग्न' शब्द उपचारनग्न (जीर्णवस्त्रधारी साधु) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः वस्त्र का सर्वथा परित्याग कर यथार्थतः नग्न रहनेवाले साधु का शरीर में कामविकार उत्पन्न न होने देना नाग्न्यपरीषहजय नहीं है, अपितु उपचारनग्न (संवस्त्र) रहते हुए एषणीय वस्त्रधारण करना नाग्न्यपरीषहजय है, जैसे आहार का सर्वथा त्याग करना क्षुधापरीषहजय नहीं है, अपितु अनेषणीय आहार ग्रहण न कर एषणीय आहार ग्रहण करना क्षुधापरीषहजय है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उपचारनाग्न्य मान्य नहीं है। यह निम्नलिखित युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध होता है १. पूर्व (अध्याय ३/प्र.२ / शी.३,४ एवं ५) में युक्तिप्रमाणपूर्वक सिद्ध किया गया है कि न तो आगम में सचेलमुनि को अचेल कहा गया है, न ही लोक में सवस्त्र स्त्री-पुरुष के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग रूढ़ है, न ही सचेल. साधु को उपचार से नग्न कहा जा सकता है। क्योंकि सचेलसाधु को उपचार से नग्न कहने पर नग्न शब्द का अर्थ बदल जाता है। सचेल के लिए 'नग्न' शब्द का प्रयोग उपयुक्त न होने से उसका निर्वस्त्र-पुरुष-रूप अर्थ असत्य हो जाता है तथा वह सवस्त्र-पुरुषरूप अर्थ का वाचक नहीं है, अतः उससे यह अर्थ भी नहीं निकल सकता। इसलिए उससे लक्षणाशक्ति द्वारा निर्लज्ज, असभ्य, चरित्रभ्रष्ट या दरिद्र पुरुष आदि अर्थ निकलते हैं, जो मुनि के लिए उचित नहीं हैं।८ इससे सिद्ध है कि सचेल मुनि को उपचार से भी नग्न नहीं कहा जा सकता। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि 'नाग्न्य' शब्द का प्रयोग उपचारनाग्न्य के अर्थ में किया गया है। यदि उन्हें उपचारनाग्न्य अभीष्ट होता, तो वे अगले सूत्र में यह स्पष्ट अवश्य करते, जैसा उन्होंने "तद्भावाव्ययं नित्यम्" (त.सू./५/३१) सूत्र से वस्तु के नित्य और अनित्य दोनों रूपों का प्रतिपादन होने पर आगे "अर्पितानर्पितसिद्धेः" (त.सू./५/३२) सूत्र द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों का अस्तित्व मुख्यगौणभाव से सिद्ध होता है। यतः उन्होंने नाग्न्य के विषय में ऐसा स्पष्टीकरण नहीं किया, इससे सिद्ध है कि उन्हें नाग्न्य के मुख्य और गौण (उपचरित) भेद स्वीकार्य ३७. क- "ननु तदप्येषणीयं रागादिदोषरहितः परिभुजानो जिताचेलपरीषहो मुनिः स्यादेवेति। ---तस्मादनेषणीयादिदोषदुष्टवस्त्रपरिभोगेणैवाजिताचेलपरीषहत्वं भवति।" हेमचन्द्रसूरि वृत्ति/विशेषाश्यकभाष्य /गा. २५९४-९७/ पृ.५१९ । ख- "तत्र क्षुत्परीषहः क्षुद्वेनादिनाऽऽगमावहितेन चेतसा समयतोऽनेषणीयं परिहरतः क्षुत्परीषहजयो भवति। अनेषणीयग्रहणे तु न विजितः स्यात् क्षुत्परीषहः।" हारिभद्रीय वृत्ति/तत्त्वार्थसूत्र /९/९/ पृ. ४६०। ३८. देखिए, अध्याय ३/ प्रकरण २/शीर्षक ५। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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