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अ० १६ / प्र० १
तत्त्वार्थसूत्र / २७७
वीतरागभाव है तथा इन्हें माँगने की इच्छा का अभाव रागभाव है। तत्त्वार्थसूत्रप्रतिपादित याचनापरीषहजय को श्वेताम्बरीय चौखटे में बैठाने के लिए श्री हरिभद्रसूरि इतना उलटा प्रतिपादन करने पर भी आमादा हो गये, यह हृदय को स्तब्ध कर देने वाली बात है।
याचना का हेतु है इच्छा, इच्छा का हेतु है लोभ, लोभ या इच्छा मूर्च्छा है तथा मूर्च्छा परिग्रह है । ४६ अतः 'याचना' परिग्रह का पर्यायवाची होने से हेय है। तब याचना करना परीषहजय कैसे हो सकता है?
तथा याचना करना मानकषाय के अभाव का लक्षण नहीं है, आत्मगौरव या लज्जा के अभाव का लक्षण है । जो आत्मगौरवरहित अथवा लज्जाहीन होता है वही याचना के दीनवचन बोलता है। इसीलिए भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में चातक को सावधान करते हुए कहा है
रे रे चातक सावधानमनसा
मित्र क्षणं श्रूयतामम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ ५१ ॥
अनुवाद - " हे मित्र चातक ! जरा मन को एकाग्र करके सुनो। आकाश में मेघ तो बहुत होते हैं, किन्तु सब एक जैसे नहीं होते । कोई-कोई ही धरती को वर्षा से आर्द्र करते हैं, बाकी सब व्यर्थ ही गरजते हैं। अत: तुम सब के सामने दीन वचन मत बोला करो अर्थात् सबसे जल की याचना मत किया करो। "
भर्तृहरि ने यहाँ याचना करने को दीनवचन बोलना कहा है। दीनवचन वही बोल सकता है, जिसे अपनी दीनता प्रदर्शित करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता । याचकता अदीन को दीन बना देती है, इस सत्य पर कवि रहीम ने भी प्रकाश डाला है
रहिमन याचकता गहे बड़े छोटे है जात । नारायण हूँ को भयो बावन अंगुल गात ॥
अभिप्राय यह कि याचना लोभ, इच्छा या मूर्च्छा का परिणाम है तथा मनुष्य को लज्जाहीन बना देती है, अतः हेय है। यह आगमवचन एवं मनीषियों के अनुभव का निचोड़ है । इसलिए श्री हरिभद्रसूरि का याचना को मानोदय के अभाव का परिणाम
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४६. " लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तिन्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदी रागे ।" समवायांग / समवाय ५२ ।
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