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________________ २३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ वह प्रसंग इस प्रकार है-पं० हीरालाल जी शास्त्री ने दिगम्बरग्रन्थ कसायपाहुड की चूर्णि और श्वेताम्बरीय कम्मपयडी, सतक और सित्तरी की चूर्णियों में विषयवस्तु और शैली की समानता देखकर इन चारों चूर्णियों को एक यतिवृषभ द्वारा रचित बतलाया है। डॉक्टर सा० ने इससे असहमति व्यक्त की है और कहा है कि उक्त चूर्णियों में विषयवस्तु आदि की समानता रहने से यह सिद्ध नहीं होता कि वे सभी यतिवृषभ की कृतियाँ हैं। अपने मत का समर्थन करने के लिए वे प्रश्न करते हैं "क्या मूलाचार, आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि की शताधिक गाथाओं के समान होने के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि मूलाचार, आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि का रचयिता एक ही है? वस्तुतः ऐसा कहना दुस्साहपूर्ण होगा। हम मात्र यही कह सकते हैं कि इन्होंने परस्पर एक-दूसरे से या अपनी ही पूर्वपरम्परा से ये गाथाएँ ली हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०९-११०)। डॉक्टर सा० के इस कथन से भी इस बात का समर्थन होता है कि मूलाचार की जो गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति आदि श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु दिगम्बरों को अपनी ही मूल परम्परा से प्राप्त हुई हैं। अतः उनके आधार पर 'मूलाचार' श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। अन्य विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है। डॉ० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-"वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परा में ऐसी अनेक गाथाएँ विद्यमान थीं, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओं के ग्रन्थों का स्रोत हैं। एक ही स्थान से अथवा गुरुपरम्परा के प्रचलन से गाथाओं को ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओं के आचार्यों ने समान रूप से उनका उपयोग किया है। मुनि-आचार-सम्बन्धी या कर्मप्राभृत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों-सम्बन्धी गाथाओं को एक ही स्रोत से ग्रहण किया गया है। तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियों के मध्य प्रचलित थीं और ऐसे कई आरातीय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायों में समानरूप से प्रतिष्ठित थे। अतः वर्तमान में मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवकालिक प्रभृति ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओं का जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदाय के ग्रन्थों में दूसरे, सम्प्रदाय से ग्रहण की गई हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओं का मूल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपरम्परा में विद्यमान था।" (ती. म. आ. प. / खं.२ / पृ. १२०)। आदरणीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री एवं पण्डित डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया है। मूलाचार Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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