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________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २३३ ग्रन्थों में किया गया है। अतः मूलाचार सर्वथा कुन्दकुन्द की ही परम्परा का ग्रन्थ है, यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है। इस प्रकार उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। समान गाथाएँ दिगम्बरग्रन्थों से गृहीत यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"मूलाचार और भगवती-आराधना की पचासों गाथाएँ एक-सी और समान अभिप्राय प्रकट करनेवाली हैं। मूलाचार की आचेलक्कुद्देसिय आदि ९०९वीं गाथा भगवती-आराधना की ४२१वीं गाथा है। इसमें दस स्थितिकल्पों के नाम हैं। जीतकल्पभाष्य की १९७२वीं गाथा भी यही है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के अन्य टीकाग्रन्थों और नियुक्तियों में भी यह है। प्रमेयकमलमार्तण्ड के 'स्त्रीमुक्तिविचार' में प्रभाचन्द ने इसका उल्लेख श्वेताम्बरसिद्धान्त के रूप में किया है।" (जै. सा. इ/द्वि. सं./पृ. ५५०)। यह साम्य तभी संभव है, जब श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाला ग्रन्थकार इसकी रचना करे। अतः सिद्ध है कि इस ग्रन्थ का कर्ता यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध है। दिगम्बरपक्ष 'भगवती-आराधना' नामक १३वें अध्याय में यह सिद्ध किया जा चुका है कि जो गाथाएँ भगवती-आराधना, आवश्यकनियुक्ति तथा प्रकीर्णक ग्रन्थों में मिलती हैं, वे भगवती-आराधना से ही उन ग्रन्थों में पहुंची हैं, क्योंकि भगवती-आराधना की रचना उन ग्रन्थों की रचना से बहुत पहले हुई थी तथा उनमें से अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरमान्यताओं के विरुद्ध हैं। मूलाचार भी प्रथम शताब्दी ई० का ग्रन्थ है, अतः आवश्यकनियुक्ति (वि०सं० ५६२) तथा आतुरप्रत्याख्यान आदि (११वीं शती ई०) की जो गाथाएँ मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं, वे मूलाचार और भगवती-आराधना से ही उनमें गई हैं। डॉ० सागरमल जी ने एक प्रसंग में यह संभावना प्रकट की है कि उपर्युक्त समान गाथाएँ दोनों परम्पराओं ३८ को अपनी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई होंगी। ३८. डॉ० सागरमल जी मूलाचार को यापनीयग्रन्थ मानते हैं। इसलिए दोनों परम्पराओं से उनका अभिप्राय श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से है। उन्होंने भगवान् महावीर के अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से भी श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की ही उत्पत्ति मानी है, जब कि संघभेद के इतिहास से सिद्ध है कि निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) संघ के विभाजन से श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ था। (देखिए, षष्ठ अध्याय)। अतः उक्त समान गाथाएँ दिगम्बर (निर्ग्रन्थ) और श्वेताम्बर संघों को ही अपने समान पूर्वाचार्यों से प्राप्त मानी जा सकती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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