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________________ २३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०२ ___ इस कथन से यह विचार स्वभावतः उत्पन्न होता है कि तब स्त्रियों को मोक्ष के लिए नग्नत्व की ही दीक्षा दी जानी चाहिए। इसका खण्डन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहि-कक्खदेसेसु। भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होइ पव्वजा॥ २४॥ जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पावया भणिया ॥ २५॥ चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण। विजदि मासा तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाणं॥ २६॥ अनुवाद-"स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि और काँख में सूक्ष्म (मनुष्यादि सम्मूर्च्छन) जीवों की उत्पत्ति होती है, तब उनकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है?" (२४)। "यदि वे सम्यग्दर्शन से शुद्ध होती है, और उपचार-महाव्रतों का नियम से पालन करती हैं, तो वे भी मोक्षमार्ग से संयुक्त कही जाती हैं, फिर भी वे प्रव्रज्या के योग्य नहीं बतलायी गयी हैं।" (२५)। "स्त्रियों का चित्त निर्मल नहीं होता, उनके परिणाम स्वभाव से ही शिथिल होते हैं, प्रतिमास उनके रक्तस्राव होता है, जिससे वे निःशङ्क होकर ध्यान नहीं कर पातीं। तब उन्हें प्रव्रज्या कैसे दी जा सकती है?" (२६)। इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्त्रियों के लिए नग्नत्वरूप निश्चयप्रव्रज्या का निषेध किया है, एकवस्त्रात्मक उपचार-प्रव्रज्या का नहीं। टीकाकार श्रुतसागर सूरि की निम्नलिखित व्याख्या से भी इस बात की पुष्टि होती है-"तेन कारणेन स्त्रीषु न प्रव्रज्या निर्वाणयोग्या दीक्षा भणिता।" (सुत्त.पा. / गा.२५)। अर्थात् उपर्युक्त कारणों से स्त्री के लिए निर्वाणयोग्य दीक्षा ('णग्गो विमोक्खमग्गो'-सुत्त. पा./गा. २३ के अनुसार नग्नत्वरूप दीक्षा) का निषेध किया गया है। आर्यिका श्री सुपार्श्वमति जी ने भी उक्त गाथाओं की व्याख्या में लिखा है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्त्री की निर्वाणयोग्य नाग्न्यदीक्षा का ही निषेध किया है, अच्युतस्वर्गप्राप्ति-योग्य सवस्त्रदीक्षा का नहीं। (सु. पा. / गा. २४-२५ षट्पाहुड में संगृहीत)। निष्कर्ष यह कि मूलाचार और सुत्तपाहुड दोनों में स्त्रियों के लिए औपचारिक दीक्षा का विधान है, पारमार्थिक दीक्षा का नहीं। पारमार्थिक प्रव्रज्या का निषेध दोनों Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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