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________________ अ०१६/प्र०४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९७ तत्त्वार्थसूत्र - उपयोगो लक्षणम्। २।८। पंचास्तिकाय – जीवा---उवओगलक्खणा। १०९। भगवतीसूत्र - उवओगलक्खणेणं जीवे। २।१०। तत्त्वार्थ के इस सूत्र का जैसा साम्य भगवतीसूत्र के साथ है, वैसा ही पञ्चास्तिकाय के साथ है, तथापि पूर्वोक्त सूत्रों का साम्य श्वेताम्बरग्रन्थों के साथ न होकर दिगम्बरग्रन्थों के साथ है, अतः यह सूत्र भी पञ्चास्तिकाय से ही अनुकृत किया गया है, यह स्वतः सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र - संसारिणो मुक्ताश्च। २।१०। पंचास्तिकाय - जीवा संसारत्था णिव्वादा---। १०९। स्थानांग - दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धा चेव असिद्धा चेव। २/१/१०१। यहाँ संसारी शब्द की समानता सिद्ध करती है कि तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र की संरचना पञ्चास्तिकाय के आधार पर हुई है। तत्त्वार्थसूत्र - स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः। २/२० । प्रवचनसार - फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला होति। अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेहंति॥ १/५६॥ स्थानांग - पंच इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियत्थे जाव फासिंदि यत्थे। ५/३/४४३। तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र का शब्दसाम्य और शब्दक्रमसाम्य प्रवचनसार की गाथा से ही है, श्वेताम्बर-स्थानांग के सूत्र से नहीं। अतः उसकी रचना प्रवचनसार की गाथा के ही आधार पर हुई है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र - भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्। १/२१ । षट्खंडागम - जं तं भवपच्चइयं तं देवणेरइयाणं। पु.१३ /५-५-५४/पृ.२९२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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