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३९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०४ स्थानांग - दोण्हं भवपच्चइए पण्णत्ते, तं जहा-देवाणं चेव नेरइयाणं
चेव। २/१/७१। त.सू.(श्वे.) - भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्। १ /२२।
यहाँ दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थ के सूत्र का देवनारकाणाम् यह शब्दक्रम षट्खण्डागम के अनुसार है। स्थानांगसूत्र का भी उसी प्रकार है, जबकि भाष्यमान्य सूत्र का शब्दक्रम इन तीनों से विपरीत है। इससे सिद्ध है कि दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ ही परम्परागत है।
१२ तत्त्वार्थसूत्र - मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। १/३१ । पंचास्तिकाय – कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णिवि णाणेहिं संजुत्ते। ४१ । प्रज्ञापना - अण्णाणपरिणामेणं भंते कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे
पण्णत्ते, तं जहा-मइअण्णापरिणामे, सुयअण्णाणपरिणामे,
विभंगणाणपरिणामे। पद १३/३/३/२८७।। यहाँ तत्त्वार्थ का सूत्र सूत्रात्मक दृष्टि से पंचास्तिकाय के अत्यन्त निकट है।
तत्त्वार्थसूत्र - देवाश्चतुर्णिकायाः। ४।१। पंचास्तिकाय - देवा चउण्णिकाया। ११८ । व्याख्याप्रज्ञ. - चउव्विहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवइ, वाणमंतर,
जोइस, वेमाणिया। २/७। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है, जैसे तत्त्वार्थसूत्रकार ने पंचास्तिकाय के शब्दों को संस्कृत में रूपान्तरित करके तत्त्वार्थसूत्र में रख दिया हो।
१४ तत्त्वार्थसूत्र - असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्। ५।८। नियमसार – धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु। ३५ । स्थानांग - चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला असंखेज्जा पण्णत्ता, तं जहा
धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे, एगजीवे। ४/३/३३४।
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