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________________ ३९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ तत्त्वार्थ सूत्र नियमसार स्थानांग तत्त्वार्थसूत्र षट्खंडाग तत्त्वार्थसूत्र पंचास्तिकाय - स्थानांग — - मति शब्द के साम्य से सिद्ध है कि तत्त्वार्थ के प्रस्तुत सूत्र की रचना नियमसार के आधार पर हुई है। इसी कारण 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च' (त.सू.१ / ३१) सूत्र भी नियमसार की उपर्युक्त गाथा (१२) के 'अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव' इस उत्तरार्ध से प्रेरित है । Jain Education International ६ मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । १ / १३ । सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । पु.१३ / ५,५,४१/पृ. २४४ । एवमाभिणिबोहिय --- । ष.खं. / पु.१३ / ५,५,४२/पृ.२४४। नन्दीसूत्र सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिबोहियं । ८० । यहाँ चिन्ता शब्द की समानता षट्खण्डागम के सूत्र के साथ है। नन्दीसूत्र में उसकी जगह पर पन्ना ( प्रज्ञा ) शब्द का प्रयोग हुआ है । इस अपेक्षा से तत्त्वार्थसूत्र की नन्दीसूत्र से भिन्नता है । - — — अ० १६ / प्र० ४ ५ मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । १ / ९ । सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । - १२ । पंचविहे गाणे पण्णत्ते, तं जहा - आभिनिबोहियणाणे सुयणाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे । ५ / ३ / ४६३ । ७ औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । २/१। उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थे विच्छिण्णा ॥ ५६ ॥ छव्विधे भावे पण्णत्ते, तं जहा - ओदइये उपसमिए, खइए खयोवसमिए पारिणामिए सन्निवाइए (सन्निपातिकः ) । ६/५३७ । यहाँ भावों की संख्यात्मक समानता (पाँच) सिद्ध करती है कि तत्त्वार्थ का उपर्युक्त सूत्र पञ्चास्तिकाय को देखकर बनाया गया है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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