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अ० २१ / पू० २
हरिवंशपुराण / ७०१
कर जगत् के कल्याण के लिए पृथ्वी पर विहार करने लगे।"२४ इस कथन से स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन भगवान् महावीर के विवाह की मान्यता के विरोधी हैं।
यह जिनसेन के दिगम्बर होने का प्रमाण है। तथा भगवान् महावीर के मातापिता के मन में उनके विवाह की इच्छा उत्पन्न होने का उल्लेख अपभ्रंशभाषा के दिगम्बर कवि रइथू के महावीरचरिउ में भी मिलता है। पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री सकलकीर्ति - विरचित वीरवर्धमानचरित की प्रस्तावना में लिखते हैं- "दिगम्बरपरम्परा के अनुसार भगवान् महावीर अविवाहित ही रहे हैं, फिर भी रइधू कवि ने अपने 'महावीरचरिउ' में माता-पिता के द्वारा विवाह का प्रस्ताव भगवान् महावीर के सम्मुख उपस्थित कराया है और भगवान् के द्वारा बहुत उत्तम ढंग से उसे अस्वीकार कराया है, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है। अपने पुत्र को सर्व प्रकार से सुयोग्य और वयस्क देखकर प्रत्येक माता-पिता को उसके विवाह की चिन्ता होती है । " ( प्रस्ता. / पृ. १०)।
इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में भी भगवान् महावीर के माता-पिता आदि मन में उनके विवाह की इच्छा उत्पन्न होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। अतः यह यापनीयग्रन्थ का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है । फलस्वरूप यह हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का हेतु न होने से हेत्वाभास है।
यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण में सग्रन्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के भी निर्देश प्राप्त होते हैं।
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यथा
न द्रव्याद्, द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता ।
निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा ॥ ६४ / ९४ ॥
डॉ० सागरमल जी ने इसका अर्थ यह किया है कि लिंग की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग ( अचेललिंग) अथवा सग्रन्थलिंग ( सचेललिंग) से मुक्ति होती है।
पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने इस श्लोक का अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही (भूतकाल के विषय को ग्रहण करने वाले) नय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से होती भी है और नहीं भी ।
२४. स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयम्भुवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने ।
जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षितिं क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥ ६६ / ९ ॥ हरिवंशपुराण ।
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