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________________ ७०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० २ डॉ० सागरमल जी ने इस व्याख्या को अनुचित बतलाया है और शंका व्यक्त की है कि मूलपाठ के साथ भी 'न वा' (अथवा नहीं) जोड़कर छेड़छाड़ की गई है। तथा भूतार्थग्राहिनय और भूतार्थनय को एक मानते हुए पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य बौद्धिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, कहा है कि "भूतार्थनय का अर्थ भूतकालिकपर्याय नहीं है, अपितु यथार्थदृष्टि या निश्चयदृष्टि है। कुन्दकुन्द ने भूतार्थ का अर्थ निश्चयदृष्टि या सत्यदृष्टि किया है । " (जै. ध. या.स./ पृ. १७५) । और डॉ० सागरमल जी ने अन्त में उपर्युक्त श्लोक से यही अर्थ निकाला है कि हरिवंशपुराण में सचेललिंग से भी मुक्ति स्वीकार की गई है। दिगम्बरपक्ष पूर्व में हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के निषेध के इतने अधिक प्रमाण दिये गये हैं कि 'हरिवंशपुराण सग्रन्थमुक्ति का कट्टर विरोधी है,' इस बात में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इसलिए इस तथ्य में भी शंका के लिए स्थान नहीं है कि पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा की गई उपर्युक्त व्याख्या सर्वथा सही है और मूलग्रन्थ में भी रत्ती भर छेड़छाड़ नहीं की गई है। हरिवंशपुराणकार ने तो सर्वत्र सर्वार्थसिद्धिटीका का अनुसरण किया है। देखिए १. “प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । " (स.सि./१०/९/९३७ / पृ. ३७३) । अनुवाद – “प्रत्युत्पन्ननय ( वर्तमान अर्थ को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सिद्धिक्षेत्र में, स्वप्रदेश में या आकाशप्रदेश में सिद्धि होती है । भूतग्राहिनय ( भूतकालीन अर्थ को ग्रहण करनेवाले नय) की दृष्टि से जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में और संहरण की अपेक्षा मानुषक्षेत्र में सिद्धि होती है । " इन्हीं नयों से इसी अर्थ का प्रतिपादन हरिवंशपुराणकार ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है Jain Education International सिद्धिक्षेत्रे मता सिद्धिरात्माकाशप्रदेशयोः । प्रत्युत्पन्न - प्रतिग्राहिनय - योगादसङ्गिनाम् ॥ ६४/८८ ॥ कर्मभूमिषु सर्वासु जन्म प्रति च संहृतिम् । संसिद्धिर्मानुषे क्षेत्रे भूतग्राहिनयेक्षया ॥ ६४ / ८९ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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