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________________ अ०१३ / प्र०३ भगवती-आराधना / १०५ लिए सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग कैसे निरूपित किया जा सकता है? उत्तर यह है कि परिग्रह को अल्प करने से अर्थात् साड़ीमात्र-अल्पपरिग्रह रखने से स्त्रियों का लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग कहा गया है। उपर्युक्त गाथा और उसकी इस विजयोदयाटीका में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि स्त्रियों को भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्तस्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करना चाहिए। उसे धारण करने की भ्रान्तधारणा पं० आशाधर जी की भ्रान्तिजनित व्याख्या से जनमी है। उन्होंने भगवती-आराधना पर मूलाराधनादर्पण नामक टीका रची है। उसमें उपर्युक्त गाथा की टीका में लिखा है "औत्सर्गिकं तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्व-परित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्यव्यवहरणानुसरणात्। इतरम् अपवादिकं श्राविकाणां तथाविधममत्वपरित्यागाभावादुपचारतोऽपि नैर्गन्थ्यव्यवहारानवतारात्। 'तत्थ' तत्र भक्तप्रत्याख्याने सन्यासकाले इत्यर्थः। लिङ्गं तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिवेति योज्यम्। इदमत्रतात्पर्यं–तपस्विनी मृत्युकालेयोग्ये स्थाने वस्त्रमात्रमपि त्यजति अन्या तु यदि योग्यं स्थानं लभते। यदि च महर्द्धिका सलज्जा मिथ्यात्वप्रचुरज्ञातिश्च न तदा पुंवद्वस्त्रमपि मुञ्चति। नो चेत् प्राग्लिङ्गेनैव म्रियते। तथा चोक्तं यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गं दृष्टं स्त्रियाः श्रुते। पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः॥" (मूलाराधना/आश्वास २/ गा.८१/ पृ.२१०-२११)। अनुवाद-"तपस्विनियों (आर्यिकाओं) के साड़ीमात्र का परिग्रह होने पर भी उसमें ममत्व का परित्याग कर देने से उनके उपचार से नैर्ग्रन्थ (सकलपरिग्रहत्याग) कहा गया है। अतः उनके लिङ्ग को औत्सर्गिक लिङ्ग कहते हैं। किन्तु श्राविकाएँ अपने वस्त्रादि में ममत्व का परित्याग नहीं करतीं, अतः उनके उपचार से भी नैर्ग्रन्थ्य नहीं कहा जा सकता। इसलिए उनका लिङ्ग आपवादिक लिङ्ग होता है। ये लिङ्ग उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान काल अर्थात् संन्यासकाल (सल्लेखनाकाल) में ग्रहण करने योग्य हैं। अभिप्राय यह है कि अयोग्य (अविविक्त = सार्वजनिक ) स्थान में तपस्विनियों को अपना पूर्वलिङ्ग अर्थात् एकसाड़ीरूप औत्सर्गिक लिङ्ग ही धारण करना चाहिए। अन्य स्त्रियों (श्राविकाओं) का लिङ्ग पुरुषों (श्रावकों) के समान समझना चाहिए। तात्पर्य यह कि तपस्विनी मृत्यु के समय योग्य (विविक्त = एकान्त) स्थान में वस्त्र का भी परित्याग कर देती है। किन्तु श्राविका, यदि योग्य स्थान मिलता है, तो वस्त्र त्यागती है। यदि वह अतिवैभवशालिनी है या लज्जालु है अथवा उसके स्वजन प्रचुरमिथ्यादृष्टि हैं, तो वह इसी श्रेणी के श्रावकों के समान वस्त्रत्याग नहीं करती, अपने पूर्व (बहुपरिग्रहात्मक) लिङ्ग से ही मरण करती है। ऐसी कहा भी गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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