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________________ १०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०३ . "स्त्री के लिए आगम में जो औत्सर्गिक या आपवादिक लिङ्ग कहा गया है, वह मृत्युकाल में परिग्रह अल्प करनेवाली स्त्री के विषय में पुरुष के समान समझना चाहिए।" इस व्याख्या में पण्डित जी ने भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिका और श्राविका के लिए एकान्तस्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग धारण करने का विधान बतलाया है, किन्तु यह भगवती-आराधना की उक्त गाथा एवं उसकी विजयोदयाटीका में प्रतिपादित अर्थ के सर्वथा विरुद्ध है। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं१. आगमोक्त दीक्षालिङ्ग ही भक्तप्रत्याख्यानलिङ्ग उक्त गाथा और उसकी विजयोदयाटीका में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक एवं आपवादिक लिङ्ग आगम में कहे गये हैं, वे ही उनके भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी होते हैं। उपर्युक्त दोनों लिङ्ग दीक्षालिङ्ग हैं। स्त्री के लिए कहा गया औत्सर्गिक लिङ्ग आर्यिका का दीक्षालिङ्ग है और अपवादलिङ्ग श्राविका का। ये दोनों क्रमशः उपचारमहाव्रतों और अणुव्रतों की दीक्षा ग्रहण करते समय ही धारण कर लिये जाते हैं। शिवार्य ने स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में इन्हीं दीक्षालिङ्गों को ग्राह्य बतलाया है। और यह आगमप्रसिद्ध है कि आर्यिका का दीक्षालिङ्ग एक साड़ीपरिधान-रूप होता है तथा श्राविका का एकाधिक-वस्त्रपरिधान-रूप। अतः यह स्वतः सिद्ध है कि शिवार्य ने इन्हीं सवस्त्रलिङ्गों को आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य बतलाया है। आगम में मुनिवत् नग्नरूप को न तो आर्यिका का दीक्षा लिङ्ग कहा गया है, न श्राविका का। अतः यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भगवती-आराधना में आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्त स्थान में मुनिवत् नग्न रूप धारण करने का विधान किया गया है। उक्त गाथा से तो उनके नग्न रूप धारण करने का निषेध होता है। २. तदेव लिङ्ग विजयोदयाटीका (भ.आ./ गा.८०) के पूर्वोद्धृत 'तदेव भक्तप्रत्याख्याने भवति' (वही लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान में होता है), इस वाक्य में प्रयुक्त 'एव' शब्द अवधारणात्मक (सीमाबंधन करनेवाला) है। अर्थात् वह स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यान में आगमोक्त दीक्षालिङ्ग के अतिरिक्त अन्य लिङ्ग की ग्राह्यता का निषेध करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का सर्वथा (एकांत एवं सार्वजनिक, सभी स्थानों में) निषेध किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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