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अ०१५/प्र०१
मूलाचार / २१९
दिगम्बरकृतित्व-विषयक बहिरंग प्रमाण कुछ बहिरंग प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि मूलाचार दिगम्बराचार्य की ही कृति है। वे इस प्रकार है
दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत मूलाचार को गृध्रपिच्छाचार्य (उमास्वाति, उमास्वामी), पूज्यपाद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसे दिगम्बराचार्यों ने प्रमाणरूप में स्वीकार किया है। गृध्रपिच्छाचार्य ने मूलाचार के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों की रचना की है। पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धिटीका में अपने कथन की पुष्टि के लिए मूलाचार की दो गाथाएँ उद्धृत की हैं।२२ यतिवृषभ ने मूलाचार के अनुसार तिलोयपण्णत्ति में कल्पवासी इन्द्र-देवियों की आयु का वर्णन किया है।२३ तथा वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में मूलाचार की अनेक गाथाएँ उद्धृत कर अपने कथन का समर्थन किया है।४ यदि मूलाचार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होता, तो ये मूर्धन्य दिगम्बराचार्य उसकी गाथाओं को प्रमाणरूप में स्वीकार न करते, क्योंकि वे यापनीयों को जैनाभास और उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को भी अपूज्य मानते थे।२५ यतः यापनीयों के युग में और उनके साथ रहते हुए भी उक्त महान् दिगम्बराचार्यों द्वारा मूलाचार को प्रमाण माना गया है, इससे स्पष्ट है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
२२. देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण १/ शीर्षक ३.३। २३. पलिदोवमाणि पंचय-सत्तारस-पंचवीस-पणतीसं।
चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ॥ ८/५३४ ॥ आरण-दुग-परियंतं, वटुंते पंच पंच पल्लाई।
मूलायाराइरिया एवं णिउणं णिरूवेंति॥ ८/५३५ ॥ तिलोयपण्णत्ती। २४. दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण।
असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च॥ १७१॥ ( धवला / ष.खं./पु. ९/४, १,
५४/गाथा ११५)। २५. "या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया, न
चार्चनीया च।" श्रुतसागरटीका / बोधपाहुड / गा. १०/ पृ. १५४।
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