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________________ ६८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०२ "व्रतों से संस्कृत लोग ब्राह्मण कहलाने लगे, शस्त्रधारण कर प्रजा की रक्षा करनेवाले लोगों का नाम क्षत्रिय हो गया। जो वाणिज्य से जीविकोपार्जन करने लगे, उनके लिए वैश्य नाम प्रचलित हुआ और जिन्होंने शिल्प एवं सेवा आदि का कर्म अपना लिया वे शूद्र शब्द से प्रसिद्ध हो गये।" (३८/४६)। ___ इन पद्यों में भी कहा गया है कि वृत्तिभेद के आधार पर ही चार वर्णों की सृष्टि हुई थी, जन्म के आधार पर नहीं। जिन कृषि आदि कर्मों के आधार पर चार वर्णों की सृष्टि हुई थी, उनकी शिक्षा ऋषभदेव ने दी थी, इसका कथन आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वयम्भूस्तोत्र में किया है। यथा प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषू: शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः॥ २॥ अनुवाद-"जिन प्रजापति ऋषभदेव ने सर्वप्रथम जीविकोपार्जन के लिए प्रजा को कृषि आदि कर्मों की शिक्षा दी थी, वे ही हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर अद्भुत उत्थान करते हुए ममत्व से मुक्त हो गये।" आचार्य समन्तभद्र ने यह भी कहा है कि सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होने पर चाण्डाल भी देवों के द्वारा पूज्य (देव) माना जाने लगता है। देखिये रत्नकरण्डश्रावकाचार का निम्नलिखित श्लोक सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम्॥ १/२८॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार में वे यह भी कहते हैं कि अहिंसाणुव्रत के पालन से एक चाण्डाल पूजातिशय को प्राप्त हुआ था मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः। नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम्॥ ३/१८॥ इस तरह दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था की मान्यता तथा गुणों के द्वारा चाण्डाल के भी पूज्य बन जाने के इतने प्रमाण उपलब्ध होने पर भी उस पर जन्मना वर्णव्यवस्था की मान्यता का आरोप करना छलवाद के अतिरिक्त और क्या है? वरांगचरित में गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था के दिगम्बरीय सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए ही व्यास, वसिष्ठ आदि के द्वारा ब्राह्मणत्व प्राप्त करने की बात कही गई है। अतः दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया जन्मना वर्णव्यवस्था मानने का हेतु असत्य है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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