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________________ अ०१८ / प्र० ४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८५ " इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए, आज से कोई २३ वर्ष पहले रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना के साथ में दिये हुए स्वामी समन्तभद्र के विस्तृत परिचय (इतिहास) में, जब मैंने 'स्वामिनश्चरितं तस्य' और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन दो पद्यों को पार्श्वनाथचरित से एक साथ उद्धृत किया था, तब मैंने फुटनोट ( पादटिप्पणी) में यह बतला दिया था कि इनके मध्य में 'अचिन्त्यमहिमा देवः ' नाम का एक तीसरा पद्य मुद्रित प्रति में और पाया जाता है, जो मेरी राय में इन दोनों पद्यों के बाद होना चाहिये, तभी वह देवनन्दी आचार्य का वाचक हो सकता है। साथ ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह तीसरा पद्य सचमुच ही ग्रन्थ की प्राचीन प्रतियों में इन दोनों पद्यों के मध्य में ही पाया जाता है और मध्य का ही पद्य है, तो यह कहना पड़ेगा कि वादिराज ने समन्तभद्र को अपना हित चाहनेवालों के द्वारा वन्दनीय और अचिन्त्य महिमावाला देव प्रतिपादित किया है, साथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके किसी व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख किया है।" अपनी इस दृष्टि और राय के अनुरूप ही मैं ' अचिन्त्यमहिमा देव:' पद्य को प्रधानतः देवागम और रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले पद्यों का उत्तरवर्ती तीसरा पद्य मानता आ रहा हूँ और तदनुसार ही उसके 'देव' पद का देवनन्दी अर्थ करने प्रवृत्त हुआ हूँ । अत: इन तीनों पद्यों के क्रमविषय में मेरी दृष्टि और मान्यता को छोड़कर किसी को भी मेरे उस अर्थ का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, जो समाधितन्त्र की प्रस्तावना तथा सत्साधु - स्मरण - मङ्गलपाठ' में दिया हुआ है, ११३ क्योंकि मुद्रित प्रति का पद्यक्रम ही ठीक होने पर मैं उस पद्य के देव पद को समन्तभद्र का ही वाचक मानता हूँ और इस तरह तीनों पद्यों को समन्तभद्र के स्तुति - विषयक समझता हूँ । अस्तु ।" (जै. सा. इ. वि. प्र./ खं / पृ. ४५९-४६२)। 44 'अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्यों को स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करने अथवा रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्र की कृति बतलाने में कोई दूसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैंने इस विषय पर गंभीरता के साथ विचार किया है, मुझे उसमें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यों में क्रमशः तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा समन्तभद्र का स्मरण किया गया है। उक्त क्रम से रक्खे हुए तीनों पद्यों का अर्थ निम्न प्रकार है " उन स्वामी ( समन्तभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नहीं है, जिन्होंने 'देवागम' (आप्तमीमांसा) नाम के अपने प्रवचन द्वारा आज भी सर्वज्ञ ११३. प्रो० साहब ने अपने मत की पुष्टि में उसे पेश करके सचमुच ही उसका दुरुपयोग किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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